परमात्मा सागर है और आत्मा उसकी एक बूंद। बूंद सागर नहीं है पर, सागर की बूंद मे भी वही स्वाद है जो सागर मे है। और सागर मे गिरकर बूंद, सागर ही हो जाती है। आत्मा जीवन-मरण में आती है। परमात्मा जीवन चक्र में नही आते, वो सबसे ऊची सत्ता कहलाते है। जिनका भाग केवल पतित को पावन बनाना। दुखी को सुखी बनाना, आदि है… हम आत्मा रचियता है, परमात्मा डायरेक्टर है, वो हमारी रचना को डायरेक्ट करते है।
आत्मा बून्द है तो परमात्मा महासागर, बून्द का लक्ष्य है महासागर उसी में मिल जाना है जाकर यही है निर्वाण प्राप्त हो जाना मोक्ष प्राप्त हो जाना। महासागर में भी जल है और बून्द भी जल है तो फ़र्क़ तो नहीं है न। महासागर का जल खारा क्यों है? क्योंकि बून्द अपने साथ अशुद्धियों को लेकर जाती है सागर तक तो सागर भी खारा हो जाता है क्योंकि वहां ढेरों बूंदे जा रही हैं न , इसी तरह हमारी अशुद्धियों को परमात्मा खुद में धारण कर लेते हैं जहर स्वयं पी लेते हैं ताकि बूंदे अपनी यात्रा पूरी कर पाएं महासागर तक पहुंचने की। तो जीवन को सच्ची राह पर जियें क्योंकि सच कड़वा होता है, जीवन की परीक्षाओं प्रशिक्षणों, समस्यायों को झेलना सीखें क्योंकि जो आरामदायक झूँठा यानी मीठा जीवन जीते हैं वह फॅसे रह जाते हैं परमात्मा तक सच्चे लोग ही पहुंचते हैं।
जो दिखाई दे रहा व महसूस हो रहा है वह सब तत्वों व 3 गुणों की महिन माया का जाल है। ओर जो इन सबको देख रहा है वह आप स्वयं यानी आत्म स्वरुप के कारण ही सम्भव हो पा रहा है। इसी माया व मन के द्वारा हम सब भ्रमित हो रहे हैं ओर ये फर्क हमें मालूम नहीं पड रहा है।
सब गुण व कल्पना मन यानी ब्रह्म के है जो हमें निराकार रुप व साकार में भी भ्रमित कर रहा है। लेकिन जो ये जान लेता है इसको चला यानी पावर कहां से मिल रही है वह सत्य जान लेता है ओर इससे पार चला जाता है। हां मित्र आप सही समझ रहे हैं इनको पावर आप स्वयं दे रहे हैं यानी आपके निजस्वरुप आत्मा से। ये आत्मा भुलकर अपने को मन का स्वरूप मान बैठी है ओर जीवात्मा कहला रही है।
इसलिए ये आज भी मान रही है मन के भ्रम से हर चीज में अपने को ढुढं रही है ओर हर चीज में ईश्वर /स्वयं को ढुढं रही है। पुजा भग्ति ध्यान योग सब कर रही है। परतुं अपने को पा/ढुढं नहीं पा रही। क्योंकि मन इसको भ्रमा रहा है ओर ये अपने आप खुद को कभी ढुढं भी नहीं पायेगी जब तक इसको कोई आकर स्वयं की भुल समझाकर इसको याद ना दिला दे। तब तक ये आजाद नहीं होगी। ओर मन के साथ सुक्ष्म शरीर बनकर ऐसे ही यात्रा करती रहेगी।
इसलिए आत्मा अजर अमर व अविनाशी है मन/ब्रह्म नहीं। ये सत्य समझने से पहले आत्मा ओर परमात्मा में फर्क ही फर्क है क्योंकि आत्मा अपना निजस्वरुप भुली हूई है ओर शरीर में कैद है। ओर परमात्मा को अपना निजस्वरुप याद है ओर वह स्वतंत्र हैं। ओर ये सत्य जानने के बाद आत्मा व परमात्मा मे कोई भेद नहीं है अर्थात सोहम यानी जैसा परमात्मा वैसा हम आत्मा। कोई अतंर नहीं है आत्मा व परमात्मा मे। ये अतंर हमें अपनी ही भ्रमित अवस्था यानी मन व माया की छाया के कारण लग रहा है ये गुण व धर्म कर्म सब मन के होते हैं आत्मा सर्वथा भिन्न है।
आशा है आप अपनी बुद्धि व विवेक से स्वयं निर्णय करके सत्य को समझ गये होगें।
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