जरूरत और चाहत में जमीं-आसमां का फ़र्क है। और जिसने इस अंतर को समझ लिया, समझिये उसने अपनी चेतना के उद्विकास का अगला आयाम छू लिया।
- जरूरत का संबंध शरीर से होता है, जो जमीं से जुड़ा है, जबकि चाहत का संबंध मन से होता है जो आसमां में उड़ा है।
- जरूरत एक भिखारी की भी पूरी हो जाती है, जबकि चाहत एक धन-कुबेर को भी भिखारी बनाए रखती है।
- जरूरत का स्वभाव है- निरंतर कम होते जाना। इस प्रकार आपकी आत्मा का निर्भार होते चले जाना, जबकि चाहत का स्वभाव है- निरंतर बढ़ते जाना। इस प्रकार आपकी आत्मा को अपने बोझ तले दबाकर मृतप्रायः कर देना।
- जरुरत का दर्शन है- अनुपलब्ध को नजरअंदाज कर उपलब्ध संसाधनों से आत्म-सँतुष्टि प्राप्त कर लेना। जबकि चाहत का दर्शन है- उपलब्ध की अवहेलना करके अनुपलब्ध के पीछे दौड़ते रहना और कभी आत्म-सँतुष्ट न होना।
जिसने जरुरत के हिसाब से अपना जीवन अनुकूलित कर लिया, समझो वह ज़िन्दगी की जंग जीत गया। जो चाहत की चूहा-दौड़ में पड़ा, समझो वह एक दिन जीवन से हार जाएगा और अपनी चाहत के चलते पुनः चौरासी के फ़ेर में पड़ जाएगा। इसलिए जागिये और अपनी चाहत को जरूरत की लक्ष्मण-रेखा से सीमा में रखने की साधना कीजिये, ताकि आप आत्म-सीता को असंतुष्टि के रावण द्वारा अपहृत होने से बचा सकें।
जरूरत और चाहत में बहुत अंतर है परन्तु ये साथ साथ ही चलती है और हमारे दुःख सुख का कारण बनती हैं मनुष्य के दिमाग पर जब चाहत का पर्दा पड जाता है तो वह उसकी जरूरत दिखाई देती है और वो हर तरह से उसे पाना चाहता है ये उसे जीने का मकसद प्रदान करती है उसकी सीढियाँ चढ़ते हुए उसे सुख मिलता है परन्तु जब उसे नहीं पाता तो दुःख का कारण भी बनती हैं , कभी कभी उसे पा भी जाता है अब उसकी साज संभाल की चिंता, उसके साथ कुछ भी बुरा हो तो चिंता, दुःख का कारण हो जाती है। इनका दामन चोली का साथ है। जैसे मन पसंद लड़की से विवाह और उसके बाद का जीवन।
- जरूरत सिर्फ कुछ वस्तुओं की होती है परन्तु चाहत का अंत नहीं है।
हमारा चंचल मन हर पल नई वस्तुओं की चाहत में लगा रहता है। हर नया विचार ही नई चाहत लेकर आता है। जैसे एक छोटा बच्चा एक खिलोने की जिद्द करता है , जैसे ही आप उसे वह खिलौना दिलवा देते है और उसके दोस्त के पास उससे बढ़िया खिलौना देख लेता है , अब पहला खिलौना जो एक मिनट पहले उसके लिए बहुत जरूरी हो गया था वह बेकार हो जाता है उसे अब दूसरा चाहिए।
चाहत एक तरफ तो जिंदगी को आगे बढ़ने में मददगार होती है दूसरी तरफ वही जिंदगीं की सबसे बड़ी दुश्मन होती है , जिस पल किसी वस्तु की चाहत होती है उस समय वह वस्तु हर तरफ से जरूरत भी दीख रही होती है , वह पल बदल जाए तो दुसरे पल उसकी जरूरत जाने कहाँ चली जाती है और नई वस्तु अब पहली जरूरत बन जाती है।
जैसे भारत में रह रहें हैं आपका मन भी है जरूरत भी है कि मेरा घर बहुत बड़ा हो मेरे पास बहुत ही बड़ी गाडी हो। आपने शीघ्र ही बड़ा घर चाव से बनवाया, नई गाड़ी भी खरीदी , फिर दो दिन बाद ही पता चला हमको कंपनी की तरफ से अमेरिका भेजा जा रहा है,मन उसी तरफ चला गया। अब उसी घर को बेचना या छोड़ना पहली जरूरत बन गया, तो जैसे तैसे उसी घर को बेचा जो कुछ दिन पहले चाहत भी थी जरूरत भी , छुटकारा पाया, अब आगे नई चाहतें आ गई।
- अब जरूरत और चाहत तो साथ ही चलती रहती हैं, जिंदगी को आगे बढ़ाने में दोनों मददगार होती हैं।
यहां जरूरत अपने चंचल मन को समझने की है हर चाहत पूरी नहीं हो सकती तो मन इतना दुखी हो जाता है जो मिला है वह सुख याद ही नहीं आता। जो नहीं मिला है उसके पीछे भागता रहता है।
मन रे तू काहे न धीर धरे ,औ निर्मोही मोह न जाने
जिनका मोह करे। ..
इस जीवन की चढ़ती ढलती धूप को किसने बांधा
रंग पे किसने पहरे डाले , रूप को किसने बांधा
काहे ये जतन करे। …
उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दे
जीवन मरण का खेल है सपना , ये सपना बिसरा दे
कोई न संग मरे।…