संविधान सभा के निर्माण की नींव
किसी भी देश के संविधान की रचना मात्र एक दिन की उपज नहीं होती है। बल्कि संविधान एक सतत् विकास का परिणाम होता है । भारतीय संविधान ऐतिहासिक विकास का काल सन् 1599 ई० से शुरू होता है।
1757 में प्लासी की लड़ाई में सिराजुद्दौला के पराजित हो जाने पर, भारत के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्र पर कम्पनी का शासन स्थापित हो गया।
जब 1599 ई० में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना हुई। 1599 के राजलेख में ब्रिटेन में गठित कंपनी के डारेक्टर को पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का 15 बर्षों लाइसेंस प्रदान किया जाता है।
1600 का राजलेख
1600 के राजलेख (Charter Act 1600) के माध्यम से भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का गठन किया जाता है। भारतीय संविधान के विकास का काल ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना से शुरू होता है। प्रारम्भ में इस कम्पनी का उदेश्य व्यापारिक था, लेकिन बाद में धीरे-धीरे रजनीतिक होने लगा।
1726 का राजलेख (Charter Act 1726)
1726 के राजलेख के द्वारा 3 प्रांतों का गठन किया जाता है। जो कलकत्ता, मद्रास, बम्बई थे। 1726 के राजलेख द्वारा कलकत्ता , बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सी के गवर्नरों को विधि बनाने की शक्ति सौंपी गयी। 1726 के चार्टर के द्वारा भारत स्थित कम्पनी को नियम , उपनियम तथा अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गयी ।
1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट (Regulating Act 1773)
1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट के द्वारा 1774 ई. में कलकत्ता में उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) का गठन किया गया। जिसके प्रथम न्यायाधीश “सर एलिजा इम्पे” (Supreme Court of Judicature at Fort William in Bengal) थे।
रेगुलेटिंग एक्ट 1773 के पारित होने के बाद बंगाल के “गवर्नर‘ पद का नाम बदलकर बंगाल का “गवर्नर-जनरल” रख दिया गया। बंगाल के पहले गवर्नर-जनरल “वारेन हेस्टिंग्स” (Warren Hastings) थे।
इस ऐक्ट के तहत कलकत्ता के गवर्नर को बंगाल , बिहार तथा उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार दिया गया ।
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट
ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने कम्पनी के ऊपर अपने प्रभाव को और मजबूत करने के उद्देश्य से 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट पारित किया। पिट्स इंडिया एक्ट ने कम्पनी के व्यापारिक एवं राजनीतिक कार्य-कलापों को एक दूसरे से अलग कर दिया।
पिट्स इंडिया एक्ट के विवाद को ही लेकर लार्ड नार्थ तथा फाक्स की मिली जुली सरकार को त्याग पत्र देना पड़ा। यह पहला और अन्तिम अवसर था जब किसी भारतीय मामले पर ब्रिटिश सरकार गिर गयी हो।
कम्पनी के वाणिज्य सम्बन्धी विषयों को छोड़कर सभी सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों को एक नियंत्रण बोर्ड के अधीन कर दिया गया। तीन डाइरेक्टरों की एक समिति द्वारा बोर्ड के सभी मुख्य आदेश भारत को भेजे जाते थे
इसी अधिनियम के अनुसार बम्बई तथा मद्रास प्रेसीडेन्सियां भी गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के अधीन कर दी गयी।
भारत में प्रशासन गवर्नर जनरल तथा तीन सदस्यीय परिषद में केन्द्रित हो गया। इस नियम द्वारा द्वैध शासन की शुरूआत हुई जो 1858 तक विद्यमान रही। एक कम्पनी के द्वारा तथा दूसरा संसदीय बोर्ड के द्वारा।
इस अधिनियम के तहत इंग्लैंड में सरकार का विभाग बनाया गया जिसे नियंत्रण बोर्ड (Board of Control) कहते थे। जिसका मुख्य कार्य डाइरेक्टर्स की नीति को नियंत्रित करना था।
1813 का राजलेख (Charter Act 1813)
1813 के राजलेख द्वारा कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया, यद्यपि उसका चीन से व्यापार एवं चाय के व्यापार पर एकाधिकार बना रहा। कम्पनी को अगले 20 वर्षो के लिए भारतीय प्रदेशों तथा राजस्व पर नियंत्रण का अधिकार प्रदान किया गया।
ईसाई मिशनरियों को को भारत में धर्म प्रचार की आज्ञा दी गई।
भारतीयों की शिक्षा पर एक लाख (1 Lakh) रुपये खर्च करने का प्रावधान किया गया।
1813 के राजलेख द्वारा भारत में अंग्रेजी सम्राज्य की संवैधानिक स्थिति पहली बार स्पष्ट हो गयी।
1833 का राजलेख
1833 के राजलेख के द्वारा चाय के व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार करने संबन्धी कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया।
1833 के राजलेख के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया। भारत के प्रथम गवर्नर जनरल “लोर्ड विलियम बेंटिक” थे।
अंग्रेजो को बिना अनुमति-पत्र के ही भारत आने तथा रहने की आज्ञा दे दी गयी। वे भारत में भूमि भी खरीद सकते थे।
भारत में दासप्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया तथा गवर्नर-जनरल को निर्देश दिया कि वह भारत से दासप्रथा को समाप्त करने के लिए आवश्यक कदम उठाये।
इस अधिनियम के द्वारा कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की परिषद में “एक कानूनी सदस्य” चौथे सदस्य के रूप में सम्मिलित किया गया ।
1858 का राजलेख
कम्पनी को दोहरा शासन व्यवस्था को समाप्त करने केलिए 1858 में ब्रिटिश सरकार ने एक अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम को “1858 एक्ट फॉर दी बेटर गवर्नमेंट आफ इंडिया” को संज्ञा से नामित किया गया।
1858 के अधिनियम के द्वारा भारत के गवर्नर जनरल का पद नाम बदलकर “वायसराय” जो ब्रिटेन के सिंघासन का सीधा प्रतिनिधि था। प्रथम वायसराय “लार्ड कैनिंग” थे।
भारत का प्रशासन अब साम्राज्ञी द्वारा नियुक्त 15 सदस्यीय एक परिषद को सौंप दिया गया, जिसका अध्यक्ष मुख्य राज्य सचिव या भारत राज्य सचिव के नाम से विभूषित किया गया। राज्य-सचिव ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता था इसलिए वह ब्रिटिश संसद के प्रति भी उत्तरदायी था।
सिविल सेवा में नियुक्तियां खुली प्रतियोगिता द्वारा की जाने लगी, जिसके लिए राज्य सचिव ने सिविल सर्विस कमिश्नर की सहायता से नियमों की उत्पत्ति की।
1861 का भारत परिषद अधिनियम
सन् 1861 के अधिनियम ने भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं को जन्म दिया। वाइसराय की कार्यकारी परिषद में एक पांचवा सदस्य शामिल किया गया जो कि “एक विधिवेत्ता का पद” था। वाइसराय की परिषद को कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गयी , जिसके तहत लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरूआत की।
लार्ड कैनिंग ने भिन्न-भिन्न सदस्यों को अलग-अलग विभाग सौंप कर एक प्रकार से मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव डाली। इस व्यवस्था के अनुसार प्रशासन का प्रत्येक विभाग एक व्यक्ति के अधीन होता था।
वाइसराय की विधान परिषद के सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी, न्यूनतम संख्या 6 और अधिकतम 12 निर्धारित की गयी। इन सदस्यों को वाइसराय मनोनीत करेगा तथा इनकी अवधि 2 वर्ष तक के लिए रखी गयी। इन सदस्यों के अधिकार क्षेत्र सीमित थे।
1892 का भारत परिषद अधिनियम
1857 की क्रान्ति के फलस्वरूप भारतीयों में पनपी राष्ट्रीयता, 1885 में कांग्रेस की स्थापना तथा इलवर्ट बिल विवाद, आदि घटनाओं ने 1892 भारत परिषद अधिनियम पारित करने के लिए अंग्रेजों को बाध्य किया।
इस अधिनियम द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान परिषद की सदस्य संख्या में वृद्धि की गयी, केन्द्रीय विधानपरिषद में न्यूनतम 10 तथा अधिकतम सदस्य संख्या 16 निर्धारित की गयी। वाइसराय को सदस्यों के नामांकन का अधिकार सुरक्षित रखा गया।
परिषद के भारतीय सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा सरकार से प्रश्न पूछने का अधिकार भी दिया गया । प्रान्तीय विधानमण्डलों को बम्बई तथा मद्रास में इस अधिनियम द्वारा न्यूनतम 8 तथा अधिकतम 20 अतिरिक्त सदस्यों द्वारा बढ़ा दिया गया।
इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान चुनाव पद्धति की शुरूआत करनी थी। केन्द्रीय विधानमण्डल में अधिकारियों के अतिरिक्त 5 गैरसरकारी सदस्य होते थे जिन्हें चारों प्रान्तों के विधान मण्डलों के गैर सरकारी सदस्य तथा कलकता निर्वाचित करते थे तथा अन्य 5 सदस्यों को नियुक्ति वायसराय करता था।
इस अधिनियम में चुनाव प्रणाली को तो स्वीकार किया गया था, परन्तु स्पष्ट ढंग से नहीं थे, विधानमण्डलों की शक्तियां बहुत सीमित थी, सदस्यों को अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था।
1909 का भारतीय परिषद एक्ट (मॉर्ले मिण्टो सुधार)
नवम्बर, 1906 में लार्ड कर्जन के स्थान पर लार्ड मिन्टो को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया तथा जॉन मॉर्ले को भारत सचिव नियुक्त किया गया।
1909 के अधिनियम द्वारा भारतीयों को विधि-निर्माण तथा प्रशासन दोनों में प्रतिनिधित्व प्रदान किया। केन्द्रीय विधान सभा में सदस्यों की संख्या 60 कर दी गयी। अब विधान मण्डल में 69 सदस्य थे जिनमें से 37 शासकीय सदस्य तथा 32 गैर शासकीय वर्ग के थे। 32 गैर सरकारी सदस्यों में से 27 सदस्य निर्वचित होते थे और पांच नाम जद।
इस अधिनियम ने केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधायनी शक्ति को बढ़ा दिया। परिषद् के सदस्यों को बजट की विवेचना करने तथा उस पर प्रश्न करने का अधिकार दिया गया।
इस अधिनियम के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार तथा पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की स्थापना की गयी। इस अधिनियम के बारे में के . एम . मुन्शी कहा हैं कि अंग्रेजों ने “उभरते हुए प्रजातन्त्र को मार डाला है।”
लार्ड मिन्टो ने पृथक् निर्वाचक मण्डल स्थापित करके लार्ड मॉरले को लिखा था – “हम नाग के दांत बो रहे हैं और इसका फल भीषण होगा।”
प्रान्तों में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत दिखावा मात्र था क्योंकि सरकारी और मनोनीत गैर सरकारी सदस्य मिलकर बहुमत में हो जाते थे।
इस अधिनियम के बारे में मजूमदार टिप्पणी करते हुए कहते हैं – “1909 के सुधार केवल चन्द्रमा की चांदनी के समान है।”
रैम्जे मैकडोनाल्ड के शब्दों में – “ये सुधार प्रजातन्त्रवाद और नौकरशाही के मध्य एक अधूरा और अल्प कालीन समझौता है।”
1919 का भारत सरकार अधिनियम (मांटेग-फ़ोर्ड सुधार)
1919 के अधिनियम का तात्कालिक कारण 1916 का होमरूल आन्दोलन तथा मेसोपोटेमिया कमीशन की रिपोर्ट थी। जिसमें भारतीय सरकार की अकुशलता का स्पष्ट आरोप था।
केन्द्रीय परिषद में भारतीयों को अधिक प्रभावशाली भूमिका दी गयी। वाइसराय के 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किये गये और उन्हें – विधि , शिक्षा , उद्योग आदि विभाग सौंपे गये।
इस नये अधिनियम के अनुसार सभी विषयों को केन्द्र तथा प्रान्तों में बांट दिया गया। केंद्रीय सूची में वर्णित विषयों पर परिषद गवर्नर जनरल का अधिकार था। जैसे – विदेशी मामले, रक्षा , डाक-तार, सार्वजनिक ऋण आदि। प्रान्तीय सूची के विषय थे – स्थानीय स्वशासन, शिक्षा चिकित्सा, भूमिकर, जल संभरण, अकाल सहायता, कृषि व्यवस्था आदि। सभी अवशेष शक्तियां केन्द्रीय सरकार के पास थी ।
इस अधिनियम के तहत केन्द्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित की गयी। एक सदन राज्य परिषद तथा दूसरे को केन्द्रीय विधान सभा कहा गया।
- राज्य परिषद में सदस्यों की संख्या 60 निश्चित की गयी। जिसमें 34 निर्वाचित तथा शेष 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होते थे। राज्य-परिषद का प्रतिवर्ष नवीनीकरण होता था परन्तु ये सदस्य 5 वर्ष के लिए बनते थे।
- निम्न सदन को केन्द्रीय विधान सभा का नाम दिया गया। इसमें सदस्यों की संख्या 145 निर्धारित की गयी 104 निर्वाचित तथा 41 सदस्य मनोनीत होते मनोनीतों में 26 शासकीय तथा 15 अशासकीय थे। सभा कार्यकाल त्रिवर्षीय था , वायसराय इसके कार्यकाल को बढ़ा भी सकता था।
द्विसदनीय केन्द्रीय विधानमण्डल को पर्याप्त शक्तियां दी गयी थी यह समस्त भारत के लिए कानून बना सकती थी। सदस्यों को प्रस्ताव तथा स्थगन प्रस्ताव लाने की अनुमति थी प्रश्न तथा पूरक प्रश्नों पर कोई रोक नहीं थी। सदस्यों को बोलने का अधिकार तथा स्वतन्त्रता थी।
प्रान्तीय परिषदों में कम से कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित तथा शेष मनोनीत होते थे। शासकीय सदस्यों की संख्यया 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होती थी।
इस अधिनियम द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली लागू की गयी और मताधिकार 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया।
1935 का भारत शासन अधिनियम
1935 के अधिनियम के द्वारा 1 अक्टूबर 1937 में दिल्ली में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) का गठन किया गया। और स्वतन्त्रता के पश्चात इसके प्रथम न्यायाधीश “हीरालाल जे कनियाँ” थे।
1935 के अधिनियम द्वारा सर्वप्रथम भारत में संघात्मक सरकार की स्थापना की गयी । इस संघ को ब्रिटिश भारतीय प्रान्त कुछ भारतीय रियासतें जो संघ में शामिल होना चाहती थी, मिलाकर बनाया गया था। 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन समाप्त करके केन्द्र में द्वैध शासन लागू किया गया।
संघ में प्रशासन के विषय दो भागों में विभक्त थे (1) हस्तान्तरित, (2) रक्षित। रक्षित विषयों में प्रतिरक्षा , विदेशी मामले , धार्मिक विषय और जनजातीय क्षेत्र सम्मिलित थे। बाकी सारे विषय हस्तान्तरित ग्रुप में आते थे।
सन् 1935 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों को स्वायत्तता प्रदान की गयी। प्रान्तीय विषयों पर विधि बनाने का अधिकार प्रान्तों को दिया गया था। केन्द्रीय सरकार का कार्य एक प्रकार से संघात्मक होता था।
प्रान्त की कार्यपालिका शक्ति गवर्नर में निहित थी तथा वह इसका प्रयोग ब्रिटिश सरकार की तरफ से करता था। गवर्नर जनरल के सभी कार्य, मन्त्रिपरिषद की सलाह से होते थे, जिनके लिए वह विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थी।
केन्द्रीय विधान मण्डल में दो सदन थे – विधानसभा तथा राज्य परिषद।
- विधान सभा में 375 सदस्य थे जिसमें 250 सदस्य ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों से तथा 125 सदस्य भारतीय रियासतों से होते थे। विधान सभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता था गवर्नर जनरल को विघटित करने की शक्ति प्राप्त थी।
- राज्य परिषद में कुल 260 सदस्य होते थे, जिनमें से 104 ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधि, 104 भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि होते थे। राज्य परिषद एक स्थायी संस्था थी, जिसके एक तिहाई सदस्य प्रति दुसरे वर्ष अवकाश ग्रहण करते थे। केन्द्रीय विधान मण्डल की शक्तियां अत्यन्त सीमित थी।
गवर्नर जनरल अपने विवेकानुसार एक साथ दोनों सदनों को आहूत कर सकता था, सत्रावसान कर सकता था तथा उसका विघटन भी कर सकता था। उसे विधेयकों पर वोटों की शक्ति प्राप्त थी।
1935 के अधिनियम द्वारा बर्मा को ब्रिटिश भारत से पृथक कर दिया गया, दो नये प्रांत सिंध और उड़ीसा का निर्माण हुआ।
सन् 1935 के अधिनियम के द्वारा कुछ प्रान्तों में द्विसदनात्मक व्यवस्था के गयी थी। उच्च सदन विधान परिषद तथा निम्न सदन विधान सभा कहलाता था।
1935 के अधिनियम में विषयों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था – संघ सूची, प्रान्तीय सूची तथा समवर्ती सूची।
- संघ सूची में कुल 59 विषय थे, अखिलभारतीय हित के विषय इसमें आते थे।
- प्रान्तीय सूची में 54 विषय थे, इसमें स्थानीय महत्व के मुद्दे शामिल थे।
- समवर्ती सूची में 36 विषय थे जिनमें मुख्यतया प्रान्तीय हित के विषय थे।
अवशिष्ट शक्तियों पर अन्तिम निर्णय गवर्नर जनरल को था कि इस पर कानून कौन बनायेगा।
प्रान्तीय सूची में समाविष्ट सभी विषयों पर प्रान्तीय विधान मण्डलों को विधि बनाने की आत्यान्तिक शक्ति थी। वे समवर्ती विषयों पर भी विधि बना सकते थे। वित्तीय विधेयक, गवर्नर की पूर्व अनुमति से ही पेश किये जाते थे। कोई भी विधेयक, बिना गवर्नर की अनुमति के कानून नहीं बन सकता था।
किसी ऐसे विधेयक पर, जिसको गवर्नर की अनुमति प्राप्त थी, सम्राट उसे अस्वीकृत कर सकता था। अपनी विवेकीय शक्ति एवं व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों के परिणाम स्वरूप गवर्नर एक तानाशाह का कार्य करता था।
नेहरू ने 1935 के अधिनियम के बारे में कहा कि ‘यह अनेक ब्रेको वाला इंजन रहित गाड़ी के समान है।‘
मुहम्मद अली जिन्ना ने इसे “पूर्णतया सड़ा हुआ, मूलरूप से बुरा और बिल्कुल अस्वीकृत बताया।“
संविधान सभा की मांग
सर्वप्रथम 1895 में संविधान सभा की मांग बाल गंगाधर तिलक द्वारा “स्वराज विधेयक” द्वारा की गई। 1916 में होमरूल लीग आन्दोलन चलाया गया, जिसमें घरेलू शासन संचालन की मांग अंग्रेजों से की गई।
1922 में गांधी जी ने संविधान सभा और संविधान निर्माण की मांग प्रबलतम तरीके से की।
1924 में मानवेंद्रनाथ रॉय ने सुझाव दिया कि भारत का अपना संविधान हो।
नेहरू रिपोर्ट – अगस्त 1928
अगस्त 1928 में नेहरू रिपोर्ट बनाई गई, जिसकी अध्यक्षता पं. मोतीलाल नेहरू ने की, जिसका निर्माण बम्बई में किया गया। इसके अन्तर्गत ब्रिटिश भारत का पहला लिखित संविधान बनाया गया। जिसमें मौलिक अधिकारों अल्पसंख्यकों के अधिकारों तथा अखिल भारतीय संघ एवं डोमिनियम स्टेट के प्रावधान रखे गए।
इसका सबसे प्रबलतम विरोध मुस्लिम लीग और रियासतों के राजाओं द्वारा किया गया।
1929 में जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का लाहौर सम्मेलन हुआ। जिसमें पूर्ण स्वराज्य की मांग की गई।
1936 में कांग्रेस का फैजलपुर सम्मेलन आयोजित किया गया। जिसमें कांग्रेस के मंच से पहली बार चुनी हुई संविधान सभा द्वारा संविधान निर्माण की मांग की गई।
क्रिप्स प्रस्ताव (Cripps Mission) – 1942
क्रिप्स प्रस्ताव के तहत भारतीयों की मांग को स्वीकार किया गया। इसकी मुख्य बातें इस प्रकार हैं –
- द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भारतीयों को संविधान बनाने की आज्ञा दी जाएगी, और संविधान सभा का गठन किया जाएगा।
- इस संविधान सभा में देशी रियासत और प्रान्त के सदस्य होंगे।
- इस प्रस्ताव में कहा गया कि भारतीय के द्वारा बनाया गया संविधान यदि ब्रिटिश सरकार की पसंद नहीं आया तो ब्रिटिश सरकार अपनी यथास्थित बनाये रखेगी।
इस प्रस्ताव को कांग्रेस लीग और गांधीजी ने नामंजूर कर दिया।
गांधीजी ने इस मिशन को ‘पोस्ट डेटेड चैक‘ की संज्ञा दी। अर्थात अंग्रेजों के इस प्रस्ताव को उन्होनें “दिवालिया बैंक” कहा है जो भविष्य में कभी भी फेल हो सकता है।
वेवेल योजना (शिमला सम्मेलन) – 1945
इसको ‘शिमला सम्मेलन‘ या वेवल योजना के नाम से जाना जाता है। 1943 में लार्ड लिनलिथगों के स्थान पर लॉर्ड वेवेल को भारत की संवैधानिक गतिविधयों को दूर करनें के लिए भेजा गया। वेवेल योजना की मुख्य बात इस प्रकार हैं –
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद भारतीयों को संविधान बनाने की आज्ञा दी जाएगी, और “कार्यकारिणी परिषद” का गठन किया जाएगा।
कैबिनेट मिशन योजना (मंत्रिमंडल योजना) – 1946
कैबिनेट मिशन योजना के तहत भारत के संविधान का गठन किया गया। जिसकी अध्यक्षता ‘ लार्ड पैथिक लारेंस‘ ने की तथा दो अन्य सदस्य सर स्टेफर्ड क्रिप्स और ए. वी. अलेक्जेंडर थे।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्च-स्तरीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की, इस शिष्टमंडल में ब्रिटिश कैबिनेट के तीन सदस्य थे –
- लार्ड पैथिक लारेंस (भारत सचिव),
- सर स्टेफर्ड क्रिप्स (व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष)
- ए.वी. अलेक्जेंडर (एडमिरैलिटी के प्रथम लार्ड या नौसेना मंत्री)
कैबिनेट मिशन दिल्ली आया – 24 मार्च 1946,
कैबिनेट मिशन प्रस्ताव को प्रस्तुत किया – 16 मई 1946
कैबिनेट मिशन 1946 का उद्देश्य –
- संविधान सभा का गठन करना (यह मुख्य उद्देश्य था).
- भारत का विभाजन (यह गौण उद्देश्य).
- संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय विधान सभाओं के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होगा।
- संविधान सभा का एक सदस्य 10 लाख जनसंख्या पर चुना जाएगा।
कैबिनेट मिशन योजना के तहत संविधान सभा में कुल 389 सदस्य होंगे –
- 296 सदस्य निर्वाचित होंगे (292 ब्रिटिश प्रांत से, 4 कमिश्नरी क्षेत्र से)
- 93 सदस्य देसी रियासतों द्वारा मनोनीत होंगे (इसमें 14 सदस्य राजस्थान से थे)
4 कमिश्नरी क्षेत्र – १. दिल्ली, २. कुर्ग, ३. अजमेर-मेवाड़, ४. बलूचिस्तान।
नवनिर्वाचित संविधान सभा
संविधान सभा के सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित हुए। जिनका चुनाव जुलाई 1946 में सम्पन्न हुआ। इस प्रकार संविधान सभा की स्थापना 6 दिसम्बर 1946 को हुई। और 24 जनवरी 1950 को इसको समाप्त कर दिया गया।
93 सदस्य देसी रियासतों द्वारा मनोनीत हुए। इस प्रकार कुल सीटें 389 हो गईं। इसमें 26 सीटें अनुसूचित जाति को, 33 सीटें अनुसूचित जनजाति को, और 15 सीटें महिलाओं को मिलीं।
नेत्रत्व | |
---|---|
पद | नाम |
अस्थायी अध्यक्ष | सच्चिदानन्द सिन्हा, कांग्रेस |
अध्यक्ष | डॉ राजेन्द्र प्रसाद, कांग्रेस |
निर्मात्री समिति के अध्यक्ष | भीमराव आम्बेडकर, SCF |
संवैधानिक सलाहकार | बी एन राव |
उपाध्यक्ष | हरेन्द्र कुमार मुखर्जी वी टी कृष्णमचारी |
अंतरिम सरकार – 1946
2 सितम्बर 1946, को नवनिर्वाचित संविधान सभा ने भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया जोकि 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में बनी रही। अंतरिम सरकार की कार्यकारी शाखा का कार्य वायसराय की कार्यकारी परिषद करती थी जिसकी अध्यक्षता वायसराय द्वारा की जाती थी। अगस्त 1946 में कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का निर्णय लिया ताकि ब्रिटिश सरकार के लिए सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सके।
# | सदस्य | विभाग |
---|---|---|
1. | पंडित जवाहर लाल नेहरु | कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष, विदेश विभाग, राष्ट्रमंडल से सम्बंधित मामले |
2. | वल्लभभाई पटेल | गृह, सुचना एवं प्रसारण |
3. | बलदेव सिंह | रक्षा |
4. | डॉ.जॉन | उद्योग एवं आपूर्ति |
5. | सी.राजगोपालाचारी | शिक्षा |
6. | सी.एच.भाभा | कार्य, खनन एवं शक्ति |
7. | राजेंद्र प्रसाद | खाद्य एवं कृषि |
8. | आसफ अली | रेलवे |
9. | जगजीवन राम | श्रम |
10. | लियाकत अली | वित्त |
11. | टी.टी.चुंदरीगर | वाणिज्य |
12. | अब्दुल रब नश्तर | संचार |
13. | गजान्फर अली खान | स्वास्थ्य |
14. | जोगेंद्र नाथ मंडल | विधि |
अगस्त 1946 में कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का निर्णय लिया ताकि ब्रिटिश सरकार के लिए सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को सरल बनाया जा सके। अंतरिम सरकार ने 2 सितम्बर 1946 से कार्य करना आरम्भ किया, और 15 अगस्त 1947 तक अस्तित्व में बनी रही और भारत के आजाद होने तक कार्य करती रही।
बंटवारा (विभाजन) होने पर संविधान सभा
3 जून, 1947 ई. की योजना के अनुसार देश का बंटवारा हो जाने पर भारतीय संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या 324 नियत की गई, जिसमें 235 स्थान प्रांतों के लिय और 89 स्थान देसी राज्यों के लिए थे।
देश-विभाजन के बाद संविधान सभा का पुनर्गठन 31 अक्टूबर, 1947 ई. को किया गया और 31 दिसंबर 1947 ई. को संविधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या 299 थीं, जिसमें प्रांतीय सदस्यों की संख्या एवं देसी रियासतों के सदस्यों की संख्या 70 थी।
प्रारूप समिति ने संविधान के प्रारूप पर विचार विमर्श करने के बाद 21 फरवरी, 1948 ई. को संविधान सभो को अपनी रिपोर्ट पेश की।
- संविधान सभा में संविधान का प्रथम वाचन 4 नवंबर से 9 नवंबर, 1948 ई. तक चला,
- संविधान पर दूसरा वाचन 15 नवंबर 1948 ई० को प्रारम्भ हुआ, जो 17 अक्टूबर, 1949 ई० तक चला,
- संविधान सभा में संविधान का तीसरा वाचन 14 नवंबर, 1949 ई० को प्रारम्भ हुआ जो 26 नवंबर 1949 ई० तक चला और संविधान सभा द्वारा संविधान को पारित कर दिया गया। उस समय संविधान सभा के 284 सदस्य उपस्थित थे।
संविधान निर्माण की प्रक्रिया में कुल 2 वर्ष, 11 महीना और 18 दिन लगे. इस कार्य पर लगभग 6.4 करोड़ रुपये खर्च हुए।