संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका)
प्रत्येक संविधान के प्रारंभ में सामान्य रूप से एक प्रस्तावना होती है जिसके द्वारा संविधान के प्रमुख उद्देश्यों को भली-भांति समझा जा सकता है। भारतीय संविधान की उद्देशिका (प्रस्तावना) अमेरिकी संविधान से प्रभावित तथा विश्व में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उद्देशिका को संविधान का सार माना जाता है और इसे संविधान की आत्मा भी कहा जाता हैं।
प. जबाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में जो आदर्श प्रस्तुत किया गया उन्हें ही संविधान की उद्देशिका में शामिल कर लिया गया। संविधान के 42वें संशोधन 1976 द्वारा यथा संशोधित यह उद्देशिका निम्न प्रकार है:-
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता,
प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ईस्वी (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
- प्रस्तावना से तात्पर्य संविधान में बनाये गए अधिनियमों को समझना है।
प्रस्तावना का प्रारूप 13 दिसंबर 1946 में प. जबाहरलाल नेहरू ने तैयार करके संविधान सभा में पेश किया और 22 जनवरी 1947 में इसे संविधान सभा द्वारा स्वीकार किया गया।
प्रस्तावना का प्रारूप अमेरिका के संविधान से और प्रस्तावना की भाषा आस्ट्रेलिया के संविधान से प्रेरित है।
अब तक प्रस्तावना में सिर्फ एक बार संशोधन किया गया – 42वां संविधान संशोधन 1976. इसके द्वारा संविधान में तीन शब्दों को जोड़ा गया – प्रथम पैराग्राफ में समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और छठे पैराग्राफ में अखण्डता शब्द जोड़ा गया।
- प्रस्तावना में तीन प्रकार के न्याय का उल्लेख है – सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक।
- प्रस्तावना में पांच प्रकार की स्वतंत्रता है – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना।
- प्रस्तावना में दो प्रकार की समता है – प्रतिष्ठा, अवसर।
वास्तव में प्रस्तावना संविधान की कुंजी तथा संविधान का सबसे श्रेष्ठ अंग है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुब्बा राव ने कहा है “प्रस्तावना संविधानके आदर्शों आकांक्षाओं को बताती है।“
प्रस्तावना में प्रयुक्त प्रमुख शब्दों के अर्थ
संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न से तात्पर्य
भारत के ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने आंतरिक और बाहरी मामलों का निस्तारण करने के लिए स्वतंत्र हैं। भारत ना तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और ना ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है।
समाजवादी से तात्पर्य
उत्पादन के मुख्य साधनों, पूँजी, जमीन, संपत्ति आदि का प्रयोग सामजिक हित में किया जाएगा।
पंथनिरपेक्ष से तात्पर्य
भारत का अपना कोई विशेष धर्म नहीं होगा। भारत देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है।
लोकतंत्र से तात्पर्य
प्रधान का निर्वाचन जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा, और प्रधान जनता के प्रति उत्तरदायी होगा। अर्थात व्यस्क मताधिकार, समाजिक चुनाव, कानून की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, भेदभाव का अभाव भारतीय राजव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं।
गणराज्य से तात्पर्य
राष्ट्रीय अध्यक्ष का निर्वाचन का एक निश्चित समय के लिए किया जाएगा। तथा भारत में वंशानुगत शासन नहीं होगा।
प्रस्तावना के संविधान का भाग होने पर विवाद
बेरुबारी मामला – 1960
बेरुबारी मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
गोलकनाथ मामला – 1967
गोलकनाथ मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के मन की कुंजी है।
केशवानंद भारती मामला – 1973
केशवानंद भारती मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व के निर्णय को निरस्त करते हुए यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान का भाग है। और इसमें संशोधन करने का अधिकार संसद को है।