जो देश के लिए अपनी जान दे दे, उसे शहीद कहते हैं। भारत देश पर अंग्रेज राज कर रहे थे। भारत माता अंग्रेजों की गुलाम थी। भारत माता को स्वतंत्र कराने के लिए भगत सिंह लड़े और इस लड़ाई में अपनी जान की कुर्बानी दी। इसलिए हम उन्हें शहीद भगत सिंह (Shaheed Bhagat Singh) कहते हैं।
अब हम पढ़ेगे कि बचपन से ही शहीद भगत सिंह के मन में अंग्रेजों से लड़ने की बात कैसे घर कर गई?
पंजाब के लायलपुर के एक गाँव बंगा में नन्हे शिशु का जन्म हुआ। दादी ने बड़े लाड़ से उस बच्चे का नाम भगत सिंह रखा। सब नन्हे भगत सिंह को खुब प्यार करते थे। घर में दादा-दादी, माता-पिता, बड़े भाई-बहन और चाचा-चाची साथ रहते थे। सबके बीच खेलकर यह बालक बड़ा होने लगा।
भगत सिंह के जन्म के समय भारत में अंग्रेजों का शासन था। भगत सिंह के दादा, पिता, और चाचा सब देश को स्वतंत्र कराने की कोशिश में जी-जान से जुटे हुए थे। देश की आजादी को लेकर घर के लोगों की बातचीत का बालक भगत सिंह के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। भगत सिंह बचपन से ही भारत की स्वतंत्रता के सपने देखने लगा।
मँझले चाचा की मृत्यु पर उसकी चाची रो रही थी। चाची को तसल्ली देते हुए बालक भगत सिंह ने कहा, “चाची जी, मत रोइए। जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, अंग्रेजों को भारत से भगा दूँगा और चाचा जी को वापस लाऊँगा।” चाची ने भगत को सीने से चिपका लिया।
पढ़ने लायक उम्र होने पर भगत सिंह को गाँव के प्राइमरी स्कूल में भर्ती करा दिया गया। वे पढ़ाई में बहुत तेज थे। भगत सिंह अपने अध्यापकों का बहुत आदर करते थे। जब वे चौथी कक्षा में थे उनके अध्यापक ने बच्चों से पूछा, “बच्चो, तुम बड़े होकर क्या करना चाहोगे?”
एक बच्चे ने कहा, “मैं बड़ा होकर अच्छी-सी नौकरी करूँगा, मास्टर जी।” दूसरे बच्चे ने कहा, “मैं बड़ा होकर खेती-बाड़ी करूँगा और फिर शादी करूँगा।” सब हँस पड़े। जब भगत सिंह की बारी आई तो उसने अकड़कर कहा, “ये सब बड़े काम नहीं हैं। मैं हरगिज शादी नहीं करूँगा। मैं तो अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर करूँगा।” सब भगत सिंह का जोश देखते रह गए। अध्यापक ने उन्हें शाबाशी देकर कहा, “भगत सिंह अपना वादा जरूर पूरा करेगा।”
पंजाब के जलियाँवाला बाग में एक सभा हो रही थी। अंग्रेजों ने बेकसूर हिन्दुस्तानियों पर गोलियाँ बरसा दीं। सैकड़ों देशवासियों की जानें चली गईं। उस वक्त भगत सिंह की आयु केवल बारह वर्ष की थी। उनके मन में आग धधक उठी। निहत्थों पर गोलियाँ चलाना अन्याय है।
भगत सिंह जलियाँवाला बाग में अकेले चले गए। चारों ओर अंग्रेजों के सिपाही थे। वे उन सिपाहियों से जरा भी नहीं डरे। बाग की मिट्टी एक शीशी में भरकर ले आए।
घर में आम आए हुए थे। भगत सिंह को आम अत्यधिक पसंद थे। उनकी बहन ने उन्हें आम खाने को बुलाया। भगत सिंह मन ही मन बहुत दु:खी थे। उन्होंने आम खाने से इंकार कर दिया। बहन को अकेले में ले जाकर शीशी में बंद मिट्टी दिखाकर बोले-
“अंग्रेजों ने हमारे सैकड़ों देशवासी मार दिए। ये खून उन्हीं शहीदों का है। मुझे अंग्रेजों से इस खून का बदला लेना है।”
भगत सिंह अनेक वर्षों तक उस शीशी को अपने पास रखे रहे और उस पर फूल चढ़ाते रहे।
कॉलेज पहुँचने पर गाँधी जी की बातों का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे कॉलेज में भी अपने मित्रों के साथ केवल भारत की आजादी की ही बातें करते। नेशनल कॉलेज में उन्होंने महाराणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त, भारत दुर्दशा जैसे नाटकों में भाग लिया। ये सभी नाटक देश-भक्ति की भावना से ओत-प्रोत थे।
भगत सिंह की तरह उनके मित्र सुखदेव और राजगुरु भी आजादी के दीवाने थे। तीनों मिलकर गाते,
“मेरा रंग दे बसंती चोला,
माँ रंग दे बसंती चोला।”
भगत सिंह के माता-पिता उनका विवाह कर देना चाहते थे, पर भगत सिंह तो अपना जीवन देश के नाम कर चुके थे। उन्होंने माता-पिता से कह दिया, “गुलाम देश में सिर्फ मौत ही मेरी पत्नी हो सकती है। मैं देश को आजादी दिलाए बिना। विवाह नहीं कर सकता।”
अपने देश को स्वतंत्र कराने के लिए भगत सिंह अपने मित्रों के साथ जी जान से जुट गए। उन्हें लगा बम के धमाकों से ही बहरी अंग्रेजी सरकार तक अपनी आवाज पहुँचाई जा सकती है। अपने एक साथी के साथ उन्होंने असेम्बली में बम फेंका और खुद गिरफ्तारी दी।
भगत सिंह और उनके मित्रों के विरुद्ध मुकदमा चलाया गया। उन पर बम फेंककर अंग्रेजों को मारने का दोष लगाया गया। कोर्ट ने भगत सिंह और उनके मित्र सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा सुनाई। सजा सुनकर तीनों मित्रों ने हँसते हुए नारा लगाया-
“वंदे मातरम् !
इंकलाब जिंदाबाद!”
भगत सिंह ने अपने माता-पिता को समझाया, “आपका बेटा देश के लिए शहीद होगा। आप लोग दुःख मत कीजिएगा।” भगत सिंह से कहा गया कि अगर वे वायसराय से क्षमा माँग लें तो उनकी फाँसी की सजा माफ की जा सकती है। भगत सिंह ने माफी माँगने से स्पष्ट इंकार कर दिया।
भगत सिंह से फाँसी से पहले जब उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उन्होंने जोरदार शब्दों में कहा, “मैं चाहता हूँ, मैं फिर भारत में जन्म लूँ और अपने देश की सेवा करूँ।”
फाँसी लगने से पहले तीनों मित्र इंकलाब जिंदाबाद कहते हुए एक-दूसरे के गले मिले। मनपसंद रसगुल्ले खाए। मित्रों के साथ भगत सिंह फाँसी के फंदे के पास जा पहुँचे। अपने हाथ से गले में फाँसी का फंदा लगाया और हँसते हँसते फाँसी चढ़ गए।
अंत तक वे नारे लगाते रहे-
“इंकलाब जिंदाबाद।”
धन्य हैं वीर भगत सिंह। उन जैसे शहीदों के त्याग से ही भारत को आजादी मिल सकी। मरने के बाद भी उनका नाम सदियों तक जीवित रहेगा। वे अमर हैं। हम उन्हें सदैव याद करते रहेंगे।