वर्ण क्या हैं?
हिंदी भाषा की सबसे छोटी लिखित इकाई वर्ण कहलाती है। या देवनागरी लिपि में भाषा की सबसे छोटी इकाई को ही वर्ण कहते हैं। दूसरे शब्दों में ‘स्वर एवं व्यंजन के सम्मिलित रूप को ही वर्ण कहा जाता है।’
हिंदी वर्णमाला
हिन्दी में वर्णों के व्यवस्थित समूह को वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में कुल 52 वर्ण हैं। हिन्दी व्याकरण में पहले स्वर वर्ण तथा बाद में व्यंजन वर्ण की व्यवस्था है।
हिंदी वर्णमाला में कुल कितने वर्ण होते हैं?
हिन्दी वर्णमाला में कुल 52 वर्ण होते हैं। इसमें पहले स्वर वर्ण तथा बाद में व्यंजन वर्ण की व्यवस्था है। विभिन्न प्रकार से हिन्दी वर्णमाला में वर्णों की संख्या इस प्रकार है-
- कुल वर्ण – 52 (13 स्वर, 39 व्यंजन)
- लेखन के आधार पर वर्ण – 52 (13 स्वर, 39 व्यंजन)
- मानक वर्ण – 52 (13 स्वर, 39 व्यंजन)
- मूल वर्ण – 44 (11 स्वर, 33 व्यंजन) – “अं, अः, ड़, ढ़, क्ष, त्र, ज्ञ, श्र” को छोड़कर
- उच्चारण के आधार पर कुल वर्ण – 47 (10 स्वर, 37 व्यंजन) – “ऋ, अं, अः, ड़, ढ़” को छोड़कर
स्वर वर्ण
जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से या बिना रुकावट के या बिना अवरोध के किया जाये और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते है। स्वर संख्या में कुल 13 हैं- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ अं, अः।
स्वरों का वर्गीकरण
1. मात्रा / कालमान / उच्चारण के आधार पर स्वर के भेद या प्रकार
इस आधार पर स्वर के तीन भेद होते हैं – १. ह्रस्व स्वर, २. दीर्घ स्वर, ३. प्लुत स्वर। मात्रा का अर्थ ‘उच्चारण करने में लगने वाले समय’ से होता है।
ह्रस्व स्वर (Hrasva Swar)
जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। इनमें मात्राओं की संख्या 1 होती है। ह्रस्व स्वर हिन्दी में चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। ह्रस्व स्वर को छोटी स्वर या एकमात्रिक स्वर या लघु स्वर भी कहते हैं।
दीर्घ स्वर (Deergh Swar)
जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। इनमें मात्राओं की संख्या 2 होती है। दीर्घ स्वर हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। दीर्घ स्वर को बड़ा स्वर या द्विमात्रिक स्वर भी कहते हैं।
प्लुत स्वर (Plut Swar)
जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने, पुकारने या चिंता-मनन करने में किया जाता है। जैसे – आऽऽ, ओ३म्, राऽऽम आदि। इनकी कोई निश्चित संख्या नहीं होती है। किन्तु कुछ भाषाविद इनकी संख्या 8 निर्धारित करते हैं।
प्लुत स्वर मूलरूप से संस्कृत के स्वर स्वर हैं। ये हिंदी के स्वर नहीं हैं। ये हिंदी में केवल त्रिमात्रिक के रूप में प्रयोग होते हैं। इसलिए हम इन्हें हिंदी में भी मान्यता देते हैं।
यह त्रिमात्रिक स्वर है, क्योंकि इसमें तीन मात्राएँ होती हैं। इसलिए प्लुत स्वर के उच्चारण में ह्रस्व स्वर से तीन गुना तथा दीर्घ स्वर से ज्यादा समय लगता है।
पहिचान– जिनमें ३ चिन्ह आता है वे संस्कृत शब्द; तथा जिनमें ऽ का प्रयोग हो वे हिंदी शब्द होते हैं।
2. व्युत्पत्ति / स्रोत / बुनावट के आधार पर स्वर के भेद या प्रकार
इनकी कुल संख्या 11 है। व्युत्पत्ति या स्रोत या बुनावट के आधार पर स्वरों को दो भागों में विभाजित किया जाता है- १. मूल स्वर, २. संधि स्वर। संधि स्वर को पुनः दो भागों में विभाजित किया जाता है- १. दीर्घ या सजातीय या सवर्ण या समान स्वर, २. संयुक्त या विजातीय या असवर्ण या असमान स्वर।
मूल स्वर (शांत स्वर या स्थिर स्वर)
मूल स्वर ऐसे स्वरों को कहते हैं जिनकी उत्पत्ति की कोई जानकारी नहीं होती हैं। मूल स्वरों को ही शांत स्वर या स्थिर स्वर भी कहते हैं। इनकी कुल संख्या 4 है- अ, इ, उ, ऋ।
संधि स्वर
इनकी कुल संख्या 7 है। संधि स्वर को दो भागों में विभाजित किया जाता है- १. दीर्घ सजातीय या सवर्ण या समान स्वर, २. संयुक्त या विजातीय या असवर्ण या असमान स्वर।
दीर्घ सजातीय या सवर्ण या समान स्वर
जब दो सजातीय या समान स्वर एक दूसरे से जुड़ते हैं, तब जो नया स्वर बनाता है उसे दीर्घ सजातीय या सवर्ण या समान स्वर कहते हैं। इनकी कुल संख्या 3 है- आ, ई, ऊ।
संयुक्त या विजातीय या असवर्ण या असमान स्वर
जब दो विजातीय या भिन्न या असमान स्वर एक दूसरे से जुड़ते हैं, तब जो नया स्वर बनाता है उसे संयुक्त या विजातीय या असवर्ण या असमान स्वर कहते हैं। इनकी कुल संख्या 4 है- ए, ऐ, ओ, औ।
3. प्रयत्न के आधार पर स्वर के भेद या प्रकार
जीभ के स्पर्श से उच्चारित होने वाले स्वर को तीन भागों में बाँटते हैं- १. अग्र स्वर, २. मध्य स्वर, ३. पश्च स्वर।
अग्र स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में जीभ का अग्र भाग काम करता है उन्हें अग्र स्वर कहते हैं। इनकी कुल संख्या 4 है। ये स्वर निम्न हैं – इ, ई, ए, ऐ।
मध्य स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में जीभ का मध्य भाग काम करता है उन्हें मध्य स्वर कहते हैं। इनकी कुल संख्या 1 है। ये स्वर निम्न है – अ।
पश्च स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में जीभ का पश्च भाग काम करता है उन्हें पश्च स्वर कहते हैं। इनकी कुल संख्या 5 है। ये स्वर निम्न है –आ, उ, ऊ, ओ, औ।
आगत स्वर
आगत स्वर अरबी-फारसी के प्रभाव से आए हैं। इनकी संख्या केवल और केवल एक (1) है।
व्यंजन वर्ण
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे वर्ण व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। व्यंजन की कुल संख्या 39 हैं।
व्यंजन शब्द “वि + अंजन” (यण संधि) से मिलकर बना है। यहाँ वि का अर्थ ‘सा’ और अंजन का अर्थ ‘जुड़ना’। अर्थात साथ में जुड़ना; जैसे – क् + अ = क। अर्थात स्वर की सहायता से जिन वर्णों का उच्चारण किया गया, वह वर्ण व्यंजन कहलाता है। व्यंजन वर्ण के मूल एवं मुख्य तीन भेद हैं -स्पर्श, अंतःस्थ, ऊष्म।
व्यंजन के भेद
- स्पर्शीय व्यंजन या वर्गीय व्यंजन
- अन्तःस्थ व्यंजन
- उष्म व्यंजन या संघर्षी व्यंजन
स्पर्शीय व्यंजन या वर्गीय व्यंजन
इन वर्णों के उच्चारण करते समय मुख के किसी ना किसी भाग का स्पर्श अवश्य होता है। इसलिए इन्हें स्पर्शीय व्यंजन कहते हैं। स्पर्श होने वाले व्यंजन वर्णों को जब पांच भागों या वर्गों में बाँटा जाता है, तब यह वर्गीय व्यंजन के नाम से भी जाना जाता है।
मूल स्पर्शीय व्यंजन वर्णों की संख्या 16 है। कुल स्पर्शीय व्यंजन वर्णों की संख्या 25 है।
वर्गीय व्यंजन
- क वर्ग- क ख ग घ ड़ (उच्चारण स्थान – कंठ)
- च वर्ग- च छ ज झ ञ (उच्चारण स्थान – तालू)
- ट वर्ग- ट ठ ड ढ ण (उच्चारण स्थान – मूर्धा)
- त वर्ग- त थ द ध न (उच्चारण स्थान – दन्त)
- प वर्ग- प फ ब भ म (उच्चारण स्थान – ओष्ठय्)
अन्तःस्थ व्यंजन
जिन व्यंजन वर्णों के उच्चारण करनें में वायु का अवरोध कम हो, उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते हैं। इनकी कुल संख्या 4 है।
अन्तस्थ निम्न चार हैं – य, र, ल, व
अर्द्ध स्वर या संघर्षहीन
इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अनवरोधित रहती है। हिन्दी में (य, व)अर्धस्वर हैं।
लुंठित/प्रकंपित व्यंजन
हिन्दी में केवल ‘र्‘ लुंठित प्रकंपित व्यंजन है। कंपन के साथ उच्चारण करते समय जीव्हा की स्थिति गोल बनती है, इसलिए इसे लुंठित प्रकंपित व्यंजन कहते है। जैसे – राजा ।
पार्श्विक व्यंजन
हिन्दी में केवल ‘ल‘ व्यंजन पार्श्विक है। उच्चारण करते समय जीभ के दोनों तरफ से वायु का निष्कासन होता है, इसलिए इसे पार्श्विक व्यंजन कहते हैं। जैसे – लालू, कालू आदि।
उष्म व्यंजन या संघर्षी व्यंजन
जिन वर्णों का उच्चारण अत्यधिक संघर्ष के साथ ज्यादा ऊष्मा का प्रयोग हो तब वह व्यंजन ऊष्म या संघर्षी व्यंजन कहलाता है। उष्म व्यंजन या संघर्षी व्यंजन वर्णों की संख्या 4 चार है।
उष्म व्यंजन या संघर्षी व्यंजन निम्न चार हैं – श, ष, स, ह।
काकल्य व्यंजन या काकलीय व्यंजन
हिन्दी में केवल ‘ह‘ व्यंजन काकल्य है। काकलीय व्यंजन या काकल्य व्यंजन (Glottal consonant) ऐसा व्यंजन होता है जिनका उच्चारण प्रमुख रूप से कण्ठद्वार के प्रयोग द्वारा किया जाता है।
व्यंजन वर्णों के अन्य रूप
द्विगुण व्यंजन / उक्षिप्त व्यंजन / ताड़नजात व्यंजन / फेका हुआ व्यंजन
जो व्यंजन वर्ण दो गुणों से मिलकर बना हो उसे द्विगुण व्यंजन कहते हैं। द्विगुण व्यंजन कब और कहाँ प्रयोग होते हैं, इस आधार पर इनके नाम उक्षिप्त या ताड़नजात हैं।
द्विगुण व्यंजन को जीव्हा के स्पर्श से मुँह बाहर तेजी से फेंक देते हैं, इसलिए इसको फेंका हुआ व्यंजन भी कहते हैं।
इनकी केवल और केवल कुल संख्या 2 है – ड़, ढ़।
इनका प्रयोग या यह हमेशा किसी भी शब्दों के बीच में या अंत में आते हैं। यह कभी भी आरम्भ में नहीं आते हैं। जैसे – पढ़ना, लड़ना, घड़ा, चढ़ाना, आदि।
यदि ड़, ढ़, किसी भी आधे या कोई भी आधे वर्णों के साथ जुड़कर किसी भी शब्दों के बीच में आये तब उनमें नुक्ता का प्रयोग नहीं किया जाता है। जैसे –
मंडल या मण्डल, पंडित या पण्डित
द्विगुण व्यंजन का प्रयोग कभी भी अंग्रेजी शब्दों के साथ नहीं होता है। जैसे – रोड़, रीड़, इत्यादि।
नुक़्ता
ड़, ढ़, के नीचे जो बिंदु है उसे नुक्ता कहते हैं। नुक्ता का अर्थ आधा “न्” होता है, जिसका प्रयोग शब्दों पर जोर देनें के लिए होता है। किन्तु अनुस्वार में प्रयुक्त आधे “न्” का प्रयोग शब्दों पर जोर देनें के लिए कभी नहीं होता है।
मूल रूप से ‘नुक़्ता‘ अरबी, फारसी के प्रभाव से आये हैं। नुक़्ते ऐसे व्यंजनों को बनाने के लिए प्रयोग होते हैं जो पहले से मूल लिपि में न हों, जैसे कि ‘ढ़’ मूल देवनागरी वर्णमाला में नहीं था और न ही यह संस्कृत में पाया जाता है।
आगत व्यंजन
हिन्दी में अंग्रेजी तथा उर्दू के प्रभाव से आए हुए व्यंजन वर्णों का शुद्ध उच्चारण करने के लिए व्यंजन वर्ण के नीचे एक बिन्दु लगाया जाता है, जिसे नुक़्ता कहते हैं। नुक्ता लगे हुए व्यंजन वर्णों को ही आगत व्यंजन कहते हैं। इनकी मूल संख्या 5 तथा कुल संख्या 6 है।
मूल संख्या 5 = क़ ख़ ग़ ज़ फ़
कुल संख्या 6 =अ, क़, ख़, ग़, ज़, फ़ (अ वर्ण नुक़्ता सहित टाइप नहीं हुआ)
नोट– चार या पांच या उससे ज्यादा वर्ण वाले शब्दों में यदि दो से अधिक बार आगत व्यंजन का प्रयोग हो तो दूसरे वर्ण पर नुक़्ता का प्रयोग करते हैं।
द्वित्व व्यंजन
जब किसी भी शब्द में एक ही व्यंजन दो बार आये किन्तु पहले वाला आधा हो और दूसरे वाला उसी का आधे से ज्यादा हो, तब उस वर्ण को द्वित्व व्यंजन कहते हैं।
द्वित्व व्यंजन में अधिकतर तीन अक्षर निर्मित शब्द ही आते हैं। जैसे – पत्ता, बच्चा, कुत्ता, बिल्ली, दिल्ली, रसगुल्ला, इत्यादि।
आयोगवाह
अयोगवाह हमेशा स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं होता है, क्यूंकि यह स्वयं में अयोग्य है; सिर्फ साथ चलने में सहयोगी है। इसके दो रूप होते हैं – १. अनुस्वार, २. विसर्ग।
अनुस्वार (ां)
अनुस्वार हमेशा स्वर के बाद आता है। व्यंजन वर्ण के बाद या व्यंजन वर्ण के साथ अनुस्वार और विसर्ग का प्रयोग कभी नहीं होता है; क्यूंकि व्यंजन वर्णों में पहले से ही स्वर वर्ण जुड़े होते हैं। जैसे – कंगा, रंगून, तंदूर।
अनुस्वार की संख्या 1 है – अं। इसमें ऊपर लगी हुई बिंदु का अर्थ आधा “न्” होता है।
विसर्ग (ाः)
विसर्ग हमेशा स्वर के बाद आता है। विसर्ग का उच्चारण करते समय “ह / हकार” की ध्वनि आती है। इनकी भी संख्या एक है- अः।
विसर्ग प्रयुक्त सभी शब्द संस्कृत अर्थात तत्सम शब्द माने जाते हैं – जैसे स्वतः, अतः, प्रातः, दुःख, इत्यादि।
अनुनासिक
अनुनासिक वर्ण दो प्रकार के होते हैं –
- चंद्र / स्वनिम चिन्ह ( ॉ )
- चन्द्रबिन्दु ( ाँ )
चंद्र / स्वनिम चिन्ह ( ॉ )
चंद्र अंग्रेजी के स्वर चिन्ह हैं। क्यूंकि इनका प्रयोग अंग्रेजी के शब्दानुसार किया जाता है।
चंद्र/स्वनिम चिन्ह के प्रयोग के निम्न नियम हैं –
यह अंग्रेजी के मूल शब्दों के साथ प्रयोग में आता है; परिवर्तित शब्दों के साथ कभी भी प्रयोग नहीं होता है। जैसे – पोलिस (मूल शब्द) , पुलिस (परिवर्तित शब्द)
जब अंग्रेजी वर्ण O के पहले और बाद में कोई अन्य अंग्रेजी का वर्ण अवश्य हो परन्तु O कभी ना हो; तब अधिकतर चंद्र / स्वनिम चिन्ह ( ॉ ) का प्रयोग करते हैं।
जैसे – डॉक्टर, हॉट, बॉल, कॉफी, कॉपी आदि।
चन्द्रबिन्दु ( ाँ )
चन्द्रबिन्दु के उच्चारण में मुँह से अधिक तथा नाक से बहुत कम साँस निकलती है। इन स्वरों पर चन्द्रबिन्दु (ँ) का प्रयोग होता है जो की शिरोरेखा के ऊपर लगता है।
जब उच्चारण शुद्ध नासिक हो, वहाँ पर चन्द्रबिन्दु का प्रयोग करें, जैसे वहाँ, जहाँ, हाँ, काइयाँ, इन्साँ, साँप, आदि।
चन्द्रबिन्दु के स्थान पर बिंदु का प्रयोग
जहाँ पर ऊपर की ओर आने वाली मात्राएँ (ि ी े ै ो ौ) आएँ, वहाँ पर चन्द्रबिन्दु के स्थान पर अनुस्वार का ही प्रयोग करें। जैसे भाइयों, कहीं, मैं, में, नहीं, भौं-भौं, आदि।
इस नियम के अनुसार कहीँ, केँचुआ, सैँकड़ा, आदि शब्द ग़लत हैं।
अनुनासिक और अनुस्वार में अंतर
अनुनासिक स्वर है और अनुस्वार मूल रूप से व्यंजन है। इनके प्रयोग में कारण कुछ शब्दों के अर्थ में अंतर आ जाता है। जैसे – हंस (एक जल पक्षी), हँस (हँसने की क्रिया)।
पंचमाक्षर
वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के पांचवें वर्णों के समूह को ‘पंचमाक्षर या पञ्चमाक्षर‘ कहते हैं। देवनागरी में पंचमाक्षर की कुल संख्या 5 है – ङ, ञ, ण, न, म।
पंचमाक्षर से निर्मित शब्द जिन्हें अनुस्वार के स्थान पर प्रयोग किया गया है – गङ्गा – गंगा, दिनाङ्क – दिनांक, पञ्चम – पंचम, चञ्चल – चंचल, कण्ठ – कंठ, कन्धा – कंधा, कम्पन – कंपन आदि।
अनुस्वार को पंचमाक्षर में बदलने के नियम
- यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे- वाड्.मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि शब्द वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख के रूप में नहीं लिखे जाते हैं।
- पंचम वर्ण यदि द्वित्व रूप में दुबारा आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे – प्रसन्न, अन्न, सम्मेलन आदि के प्रसंन, अंन, संमेलन रूप नहीं लिखे जाते हैं।
- जिन शब्दों में अनुस्वार के बाद य, र, ल, व, ह आये तो वहाँ अनुस्वार अपने मूल रूप में ही रहता है। जैसे – अन्य, कन्हैया आदि।
- यदि य , र .ल .व – (अंतस्थ व्यंजन) श, ष, स, ह – (ऊष्म व्यंजन) से पहले आने वाले अनुस्वार में बिंदु के रूप का ही प्रयोग किया जाता है चूँकि ये व्यंजन किसी वर्ग में सम्मिलित नहीं हैं। जैसे – संशय, संयम आदि।
पंचम वर्णों के स्थान पर अनुस्वार
अनुस्वार (ं) का प्रयोग पंचम वर्ण ( ङ्, ञ़्, ण्, न्, म् – ये पंचमाक्षर कहलाते हैं) के स्थान पर किया जाता है। अनुस्वार के चिह्न के प्रयोग के बाद आने वाला वर्ण क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग और प वर्ग में से जिस वर्ग से संबंधित होता है अनुस्वार उसी वर्ग के पंचम-वर्ण के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे –
- गड्.गा – गंगा
- चञ़्चल – चंचल
- झण्डा – झंडा
- गन्दा – गंदा
- कम्पन – कंपन
सयुंक्त व्यंजन
वैसे तो जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं, किन्तु देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन हो जाने के कारण इन चार को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे-
- क्ष = क्+ष
- त्र = त्+र
- ज्ञ = ज्+ञ
- श्र = श्+र
कुछ लोग क्ष, त्र, ज्ञ, श्र को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं, अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।
वर्णों के उच्चारण स्थान सूची
पंचमाक्षर के उच्चारण स्थान
पञ्चमाक्षर (ङ, ञ, ण, न, म) के संयुक्त रूप से उच्चारण स्थान नासिक्य होता है। परन्तु अलग अलग पञ्चमाक्षरों का उच्चारण स्थान उपरोक्त सूची के अनुसार होता है।