गुरु गोविंद सिंह सिक्ख सम्प्रदाय के दसवें और आखिरी गुरु थे। वे नवें गुरु, तेगबहादुर के पुत्र थे। उन्होंने नौ साल की उम्र में देखा था कि औरंगजेब ने धर्म परिवर्तन न करने पर उनके पिता की हत्या कर दी थी।
गुरु गोविंद सिंह ने तय किया कि सिक्खों को ताकतवर बनाना है, जिससे वे अन्याय के विरुद्ध लड़ सकें। उन्होंने खुद हाथ में तलवार उठाई, सिक्खों को लड़ने के लिए इकट्ठा किया। वे मुगल साम्राज्य से आखिरी दम तक लड़े।
मुगल बादशाह औरंगजेब के शासनकाल की बात है। सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर जी ने बड़े साहस के साथ सभी नागरिकों के लिए अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं के स्वतंत्रतापूर्वक पालन करने के अधिकार की बात उठाई थी।
गुरु तेगबहादुर का यह कहना था कि किसी भी शासक को इस बात का कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि वह अपनी प्रजा के निजी धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करे। गुरु तेगबहादुर के इन विचारों को मुगल बादशाह की धार्मिक नीति का विरोध माना गया।
इससे पूर्व उनका मुगल राज्य में बड़ा सम्मान था। किंतु एक बार उनके पास कश्मीर के ब्राह्मण अपनी शिकायत लेकर पहुंचे कि बादशाह औरंगजेब के अधिकारी उन्हें धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश कर रहे हैं तथा उन्हें अपने धर्म का पालन करने से रोक रहे हैं।
गुरु तेगबहादुर ने बादशाह के पास संदेश भिजवाया कि हो सके तो वे पहले उनको अपना धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश करें, उसके बाद ही कश्मीरी बाह्मणों को ऐसा करने के लिए कहें। औरंगजेब ने गुरुजी को गिरफ्तार करने का हुक्म सुनाया। बादशाह के हुक्म से उन्हें कैद करके उसके पास लाया गया।
बादशाह ने उनसे पूछा, “क्या तुम यह कहते हो कि बादशाह को अपनी प्रजा के धार्मिक मामलों में बोलने का कोई अधिकार नहीं है?”
गुरु तेगबहादुर ने जवाब दिया, “भगवान और भक्त या खुदा और बंदे के बीच में बादशाह का क्या काम है? किसी के धर्म और ईमान पर हाथ डालने का आपको ही क्या, किसी को भी कोई अधिकार नहीं है।”
बादशाह ने गुस्से से कहा, “इसकी सजा जानते हो?”
गुरु तेगबहादुर ने हँसकर जवाब दिया, “सजा या इनाम देने का अधिकर भी सिर्फ ऊपर वाले का है, आपका नहीं।”
बादशाह ने गुरुजी को समझाते हुए कहा, “तुम्हारी जगह यदि कोई और होता तो मैं उसे फाँसी पर लटकाने का हुक्म दे चुका होता। परंतु तुम भले आदमी हो और यह तुम्हारा पहला अपराध है। मैं तुम्हें जान बचाने का एक मौका देना चाहता हूँ। तुम अपना धर्म बदल लो तो तुम्हारा अपराध माफ किया जा सकता है। अगर तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हारा सर कलम कर दिया जाएगा।”
गुरु तेगबहादुर ने अपना सर दे दिया, पर अपना सार यानी अपना धर्म नहीं दिया। दिल्ली में चाँदनी चौक की कोतवाली में सन् 1675 में उनका सर कलम कर दिया गया।
उनके पुत्र गोविंद को जब अपने पिता की कुर्बानी का समाचार मिला तो उनके दुःख की कोई सीमा नहीं रही। उनकी उम्र उस समय सिर्फ नौ साल थी, पर अपने दु:ख में भी उन्हें गर्व था कि उनके पिता सत्य और धर्म के मार्ग में शहीद हुए हैं। और उन्होंने दूसरों के धर्म की रक्षा करते हुए अपना बलिदान दिया है।
सिक्ख समुदाय ने उन्हें अपना दसवाँ गुरु मानकर गद्दी पर बिठाया। बालक गुरु गोविंद अपने पिता के दिखाए हुए मार्ग पर चलने के लिए तैयार थे। वे औरंगजेब के अत्याचारों का मुँह तोड़ जवाब देना चाहते थे पर उनके बुजुर्गों ने उन्हें जल्दबाजी करने से रोक दिया।
उन्होंने बालक गुरु गोविंद को समझाते हुए कहा, “गुरु महाराज! अभी आप उम्र में छोटे हैं। हमारा सिक्ख समुदाय अभी मुगलों का सामना करने की स्थिति में नहीं है। आप अगर पंजाब में रहेंगे तो आपको और आपके साथ-साथ पूरे सिक्ख समुदाय को मुगलों के अत्याचार सहने पड़ेगे। आप आनंदपुर साहब चले जाइए। वहीं रहकर आप अपनी शिक्षा पूर्ण कीजिए और हम लोगों के कल्याण का मार्ग खोजिए।”
गुरु गोविंद ने आनंदपुर साहब में रहकर धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया। वे वर्षों तक भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन और भारतीय इतिहास के स्वर्णिम अध्यायों का अध्ययन करते रहे और इसी से उन्हें प्रेरणा मिली कि वे भारतीयों के प्राचीन गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए सिक्खों को तैयार करें।
आनंदपुर साहब में गुरु गोविंद लगभग बीस वर्ष रहे। उनकी आँखों के सामने अब भी उनके पिता गुरु तेगबहादुर की शहादत का दृश्य तैर जाता था। इसी काल में उन्होंने गढ़वाल में स्थित हेमकुंड जाकर तपस्या की। उन्होंने “चंडी का चरित्र” और “चंडी का वर” ग्रंथों की रचना की।
जब सब लोग यह समझ रहे थे कि गुरु गोविंद तपस्वी का जीवन बिताएँगे, तभी उन्होंने अपने ग्रंथ “विचित्र नाटक” में यह स्पष्ट कर दिया कि उनका जीवन हिमालय की पहाड़ियों में तप करके जीवन बिताने के लिए नहीं हुआ है। उन्हें ईश्वर का आदेश हुआ है कि, “गोविंद! तू मेरा पुत्र है। तू एक नए पंथ का निर्माण कर। तू इस नेकी के पंथ का प्रसार कर, बंदों को बदी करने से रोक एवं दुष्टों और अत्याचारियों का विनाश कर”।
भगवान के आदेश का पालन करते हुए गुरु महाराज ने तय कर लिया कि अब से वे खुद और उनके सभी सिक्ख भाई कायरों का-सा जीवन बिताने के स्थान पर शेरों का-सा जीवन जियेंगे।
सन् 1699 में उन्होंन बैसाखी के दिन लोगों की सभा बुलाई। सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, “तुम लोग बहुत दिन मेमने बनकर जी लिए। तुम्हारा जन्म अपमानित होने के लिए नहीं हुआ है। आज से तुम लोग सर उठाकर जिओगे। शेर की-सी जिंदगी के एक दिन पर मेमने जैसी जिंदगी के सौ साल कुर्बान किए जा सकते हैं।
आज से प्रतिज्ञा कर लो कि जो तुम्हारे धर्म पर चोट करेगा, जो तुम्हारे सम्मान पर चोट करेगा, उस अन्यायी का तुम सर कुचल दोगे। आज माँ चंडी तुमसे कुर्बानी माँग रही है। तुम में से कौन है जो अपने धर्म की रक्षा के लिए अपने पंथ के सम्मान की खातिर माता के दरबार में अपना शीश चढ़ाने के लिए तैयार है। जो कर्बानी के लिए तैयार हो वह सामने आ जाए।”
सारी सभा में संनाटा छा गया। कुछ देर तक कोई भी अपने स्थान से नहीं हिला। फिर एक नौजवान आगे बढ़ा। उसने हाथ जोड़कर गुरु महाराज से कहा, “सचे पातशाह ! आप माँ शेरावाली को मेरी बलि चढ़ा दीजिए।”
गुरु महाराज ने आगे बढ़कर उस नौजवान को गले लगा लिया और फिर उसे एक कमरे में ले गए। कुछ देर बाद वे खून से सनी तलवार लेकर बाहर निकले। उन्होंने गरजते हुए पूछा, “तुम लोगों में और कौन है जो माँ को अपनी बलि देगा? जिसको मुझ पर भरोसा हो, जिसके मन में अपने पंथ की सेवा का निश्चय हो, जिसे अपनी जान से ज्यादा अपना सम्मान प्यारा हो, वह आगे बढ़े।”
एक-एक करके चार नौजवान और आगे बढ़कर आए। गुरु महाराज ने बारी-बारी से उन्हें कमरे में ले जाकर उनकी बलि दे दी।
पर कुछ देर बाद ही चमत्कार हो गया। वे पाँचों नौजवान जिनकी बलि दी गई थी, एक-एक करके जनसमूह के सामने आकर खड़े हो गए। गुरु महाराज ने कहा, “ये पंच प्यारे हैं। इन नौजवानों ने, इन पाँच प्यारों ने पाहुल विधि के द्वारा अमृत चख लिया है। आज से इनका जीवन धर्म के लिए समर्पित होगा।
आज से हर सिक्ख सैनिक वेश में रहेगा। वह पाँच ककार के नियम का पालन करेगा, यानी हर सिक्ख केश, कड़ा, कंघा, कच्छा और कृपाण धारण करेगा।
आज से हर सिक्ख अपने नाम के आगे सिंह लगाएगा और आज से वह सिंह का-सा जीवन बिताने का प्रण लेगा। वह अन्यायियों से पीडित और असहायों की रक्षा करेगा।
आज, बैसाखी के दिन, मैं खालसा की स्थापना करता हूँ। खालसा के झंडे तले तुम सब आजाद हो। बोलो खालसा जी की फतह ! जो बोले सो निहाल! सत् श्री अकाल!”
सभा में उपस्थित हजारों लोगों ने एक साथ कहा, “वाहे गुरुजी का खालसा! वाहे गुरुजी दी फतह ! जो बोले सो निहाल ! सत् श्री अकाल।”
गुरु गोविंद सिंह ने भीमचंद जो कि घर का भेदी था, की फौज को पराजित किया। अब उनकी लड़ाई औरंगजेब से थी जिसने न सिर्फ उनके पिता की हत्या करवाई थी, बल्कि लाखों लोगों को धर्म-पालन करने से जबरन रोकने की कोशिश भी की थी।
औरंगजेब के हक्म पर सरहिंद के मुगल सूबेदार ने गुरु गोविंद सिंह पर आक्रमण कर दिया। उनको संकट में देखकर बहुत से लोगों ने उनका साथ छोड दिया, पर कुछ वफादार मरते दम तक उनके साथ रहे।
गुरु महाराज को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा। उनके दो पुत्र रणक्षेत्र में शहीद हो गए। उनके शेष दो पुत्रों को मुगलों ने जिंदा दीवार में चिनवा दिया। फिर भी उनकी हिम्मत नहीं टूटी।
उन्होंने औरंगजेब को एक पत्र में लिखा, “तुमने कुछ चिंगारियों को जरूर बुझा दिया है अर्थात् मेरे पुत्रों को मार डाला है, पर इससे क्या हासिल होगा? क्योंकि मशाल (अर्थात मैं खुद) तो अब पहले से भी ज्यादा तेजी से जल रही है।”
गुरु गोविंद सिंह ने अपने हाथ में तलवार केवल इसलिए उठाई थी कि वे अत्याचारी का सामना कर सकें और एक सोई हुई कौम को उसकी टंकार से जगा सकें। औरंगजेब की मृत्यु के बाद जब बादशाह बहादुरशाह ने उनके समक्ष दोस्ती का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने उसे अविलम्ब स्वीकार कर लिया।
पर भाग्य को कुछ और ही मंजर था। सन् 1708 में बादशाह से बातचीत करने के लिए दक्षिण जाते समय एक अफगान ने गुरु महाराज की हत्या कर दी। गुरु गोविंद सिंह ने अपनी मृत्यू से पहले ही यह निश्चित कर दिया था कि उनकी मृत्यु के बाद गुरु परम्परा समाप्त हो जाएगी और उनके बाद केवल गुरु ग्रंथ साहब और सिक्ख सभा की आजा का पालन होगा। वे सिक्खों के अंतिम गुरु थे।
गुरु गोविंद सिंह की शिक्षाएं आज भी जीवित है। महाराजा रणजीत सिंह ने उनको शिक्षाओं से प्रेरित होकर विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने सिक्खों का वीर साहसी और धर्मपरायण बनाया। उन्होंने सबको सर उठाकर आत्म-सम्मान के साथ जीना सिखाया। उन्होंने गुरु नानक से लेकर सभी गुरुओं के मानवता के संदेश को जन-जन तक पहुँचाया था।
गुरु गोविंद सिंह साहस, वीरता. धर्मरक्षण, त्याग, आत्म-सम्मान, करुणा और प्रेम का मूर्ति थे। भारतीय इतिहास में उनका नाम अमर रहेगा।