इतिहास इस बात का प्रमाण है कि भारत में ऐसे मानवों ने जन्म लिया है जो अपने गुणों के बल पर मानव से महामानव बने। वे न केवल भारतवर्ष में ही जाने जाते हैं, बल्कि संसार के अन्य देशों में भी उनका नाम आदरपूर्वक लिया जाता है। महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, सुभाषचन्द्र बोस जैसे महामानवों के साथ ही लालबहादुर शास्त्री का नाम आता है।
शास्त्री जी एक साधारण मानव से महामानव की कोटि में आये और थोड़े से जीवन काल में ही देश के चोटी के नेता और संसार के गणमान्य लोगों में गिने गये। उनके जीवन के कुछ आदर्श अनुकरणीय हैं।
शास्त्री जी का जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था और साथ ही डेढ़ वर्ष की अवस्था में पिता का स्वर्गवास हो गया। उनका पालन-पोषण गरीबी में ननिहाल में हुआ था। गरीबी और मुसीबतों को झेलते हुए शास्त्री जी निरंतर आगे बढ़ते रहे।
साहस और कर्त्तव्य को ढाल बनाये हुए शास्त्री जी जिस क्षेत्र में भी गये वहीं सफलता ने उनके कदम चूमे। उन्होंने बड़े होकर समाज सेवा का व्रत लिया और समाज सेवा के लिए उन्होंने एक छोटे से कार्यकर्ता के रूप में अपना जीवन आरम्भ किया।
समाज सेवा में अनेक खट्टे-मीठे अनुभव हुए, किंतु वे किसी भी कार्य से नहीं घबराये, क्योंकि मानव सेवा ही उनके जीवन का ध्येय था। धीरे-धीरे उनका रुझान देश की स्वतंत्रता की ओर होता चला गया। देश में चल रहे अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलनों में वे सक्रिय भाग लेने लगे। परिणामस्वरूप पहली बार उन्हें ढाई वर्ष की सजा हुई।
इसी बीच शास्त्री जी की पुत्री गम्भीर रूप से बीमार हुई तो सरकार ने इन्हें कुछ दिन के लिए पैरोल पर छोड़ दिया। जब शास्त्री जी घर पहुँचे तो पुत्री अंतिम विदा ले चुकी थी। पुत्री का दाह-संस्कार करने के बाद शास्त्री जी पुनः जेल चले गये।
जेल से छूटने के पश्चात् वे फिर पूरी लगन से देश सेवा में लग गये। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए स्वतंत्रता आन्दोलनों में भाग लेते रहे और जेल जाते रहे। इस प्रकार देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने कुल मिलाकर नौ वर्ष तक जेल यातनाएँ सही, परंतु कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि वे विचलित हुए हों। अनेक प्रयत्नों के बाद देश को आजादी मिली।
महान स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की बागडोर को सम्भाला और अपनी सरकार बनाई। शास्त्री जी को भी उत्तर प्रदेश की राजनीति में भागीदारी मिली। मंत्री पद प्राप्त कर उन्हें कोई अभिमान नहीं हआ। देश की गरीबी को देखते हुए उन्होंने अपने सुखों का त्याग किया और सभी धनी लोगों से फिजूल खर्च को रोकने की प्रार्थना की।
एक बार उन्हें वाराणसी जिले के गाँव में किसी विवाहोत्सव में जाना था, क्योंकि वे राज्य के मंत्री थे, अत: उन्हें पक्की सड़क से ही गाँव में पहुँचाने का प्रबंध किया गया। वह गाँव शास्त्री जी का पहले से देखा हुआ था। जब उनकी गाड़ी गाँव के कच्चे रास्ते को छोड़कर सड़क पर आगे बढ़ी, शास्त्री जी ने गाड़ी रुकवाई और उसी कच्चे रास्ते पर पैदल चलकर गाँव में पहुँच गये। यह देख सभी अधिकारी और अन्य लोग आश्चर्यचकित थे। शास्त्री जी ने कहा, “इसमें आश्चर्य की क्या बात है? गाँव मेरा पहले से देखा हआ है, फिर इतना चक्कर लगाकर धन और श्रम क्यों बर्बाद करें?” यह थी उनकी महानता।
शास्त्री जी की लगन एवं कर्त्तव्य निष्ठा से सभी भली प्रकार से परिचित थे। राज्य से निकलकर वे केंद्र में रेल मंत्री बने। रेल-मंत्रालय में उन्होंने अनेक सुधार किये। मितव्ययता और कर्त्तव्य पालन के वे धनी थे। अपने कर्त्तव्य पालन में उनसे तनिक भी चूक हो जाती थी तो उन्हें बहुत पीड़ा होती थी। एक बार उनके रेल मंत्री होते हुए एक भयानक रेल दुर्घटना हुई, जिसमें अनेक लोगों की मृत्यु हो गयी। शास्त्री जी ने रेलमंत्री होने के कारण इसकी नैतिक जिम्मेदारी अपने ऊपर ली और पद से त्याग पत्र दे दिया।
पं० नेहरू जैसे प्रभावशाली व्यक्ति के समझाने पर भी उन्होंने यही उत्तर दिया, “यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी है कि मैं जिस काम को ठीक से नहीं कर पाया उससे मुझे दूर हो जाना चाहिए।”
यह सब उनके परिश्रम, लगन, ईमानदारी व कर्त्तव्यपालन का परिणाम था कि वे 9 जून, 1964 को देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए। अपने प्रधानमंत्री काल में उन्होंने देशवासियों को स्वावलम्बी बनने का संदेश दिया और कई वस्तुओं में देश को आत्मनिर्भर बनाया।
सन् 1965 में हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया, जिसका मुँह तोड़ जवाब दिया गया, जिसे देख संसार के देशों में खलबली मच गई और तुरंत युद्ध विराम हुआ। पाकिस्तान को घुटने टेकने पड़े और भारत के साथ समझौता करना पड़ा।
पद, प्रतिष्ठा और धन की तुलना में वे कर्त्तव्यपरायणता को अधिक महत्व देते थे। इसीलिए देश की जनता उनका सच्चे हृदय से आदर करती थी। प्रधानमंत्री रहते हुए भी वे अपने नौकरों और सहयोगियों के परिवार के सुख-दुःख में सम्मिलित होते थे।
सदैव देश की गरीब जनता की खुशहाली के लिए सोचते थे। अपने कोमल स्वभाव, दृढ़ निश्चय और कर्त्तव्य प्रेम के कारण वे देश के जन-जन के प्रिय बन गये। साधारण से साधारण व्यक्ति भी उनसे भेंट कर सकता था। उन्हें किसी बात का अभिमान नहीं था। वे सब की बातें सुनते थे और सबकी सहायता करते थे। वे सादा जीवन तथा उच्च विचार वाले व्यक्ति थे।
शास्त्री जी छोटों के प्रति अपार स्नेह एवं बड़ों के प्रति आदर की भावना रखते थे। इस भावना को जब वे व्यावहारिक रूप देते थे तो लोग आश्चर्य का अनुभव करते थे।
एक बार शीत ऋतु में शास्त्री जी रूस की यात्रा पर गये हुए थे। शास्त्री जी ऊनी खादी का पतला कोट पहने हुए थे। रूसी अधिकारियों को बड़ा आश्चर्य था कि भारत जैसे महान देश का प्रधानमंत्री सर्दियों में इतना हल्का कोट पहने है जो यहाँ की जलवायु के लिए पर्याप्त नहीं है। रूस की ओर से उन्हें दो भारी कोट भेंट किये गये। शास्त्री जी ने उनमें से एक अच्छा कोट अपने एक निजी सहायक को दे दिया। रूसी अधिकारियों को यह देखकर और अचम्भा हआ। शास्त्री जी ने उन्हें समझाया, “जब एक कोट से मेरा काम चल सकता है तो मैं दो कोट क्यों रखें?” उनकी इसी सादगी से सभी रूसी हैरान थे।
शास्त्री जी प्रधानमंत्री पद पर लगभग डेढ़ वर्ष तक रहे, परंतु इस अल्पकाल में उन्होंने ऐसे अनेक कार्य किये कि देश आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा। देश का सम्मान बढ़ा।
पाकिस्तान द्वारा किए गए आक्रमण के समय समझौते के लिए उन्हें ताशकंद (रूस) जाना पड़ा। आत्मा की आवाज के विरुद्ध हुए समझौते से वे इतने पीडित हुए कि 11 जनवरी, 1966 को उनकी आत्मा की आवाज रुक गई। सारा देश शोक की लहर में डूब गया।
हर भारतवासी की आँखें नम थीं। मानव कल्याण और संसार की सुख-शांति के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहूति दी थी। युगों-युगों तक वे हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ बने रहेंगे।
बच्चो! शास्त्री जी के जीवन से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि हम सदैव सादा जीवन और उच्च विचार वाले बनेंगे। अपनी निर्धनता से आप निबटेंगे। किसी पर आश्रित नहीं रहेंगे। अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे। फिजूल खर्चा बंद करेंगे। अपने देश के लिए प्राणों तक को न्यौछावर कर देंगे।