वृद्धावस्था को हम एक प्रकार की बाल्यावस्था कह सकते हैं और बूढ़ी काकी एक छोटे बच्चे की भाँति थी। उसे भोजन के अलावा और किसी वस्तु में रुचि नहीं थी। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसे रोने के अलावा और कुछ नहीं आता था।
लगभग अंधी और लाचार, काकी अपने कमरे के फर्श पर लेटी रहती और यदि उसे भोजन मिलने में थोड़ी देर हो जाती तो वह हाय-तौबा मचा देती।
काकी का एकमात्र रिश्तेदार पंडित बुद्धिराज उसका अपना भतीजा था। वह उसके घर रहती थी और उसने अपनी सारी सम्पत्ति उसे दे रखी थी। बदले में उसने काकी की देखभाल और उसकी सारी आवश्यकताओं को पूरा करने का जिम्मा उठाया था।
लेकिन जब एक बार काकी की दौलत उसके हाथ आ गई थी, तो वह अपने सारे वायदे भूल गया था। काकी की देखभाल करना तो बहुत दूर, वह उसे भरपेट खाना भी नहीं देता था।
बुद्धिराज की पत्नी रूपा धर्म-भीरु स्त्री थी लेकिन इस बात को लेकर वह भी चुप्पी साधे रहती थी। बुद्धिराज के बेटे, अपने माता-पिता से प्रेरित होकर, हर समय काकी को छेड़ते या चिढ़ाते रहते।
बुद्धिराज के परिवार का केवल एक सदस्य ऐसा था जिसे काकी से कुछ प्यार या सहानुभूति थी, वह थी, बुद्धिराज की सबसे छोटी लाडली बेटी।
बुद्धिराज के बेटे की सगाई की रस्म थी। घर लोगों से भरा था और उनके लिए शानदार भोजन का प्रबंध था। बूढ़ी उपेक्षित काकी अपने कमरे में अकेली थी। विभिन्न पकवानों की गंध उसे बेचैन कर रही थी।
“कोई भी मेरे लिए भोजन लेकर नहीं आया। सभी ने अब तक खा लिया होगा। सारा खाना समाप्त हो चुका होगा। मुझे एक भी पूरी नहीं मिलेगी।” अपना खाना लाने के लिए वह किससे कहे, काकी सोचने लगी। लाडली भी आज उसके निकट नहीं आई है।
फर्श पर उकडूं बैठकर, अपने हाथों से धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई, रेंगती हुई-सी काकी उस ओर बढ़ी जहाँ भोजन पक रहा था। वह एक बड़े पतीले के पास बैठ गई और भूखे बच्चे की भाँति उत्सुकतावश उस पतीले में झाँकने लगी।
रूपा पहले से ही अधीरता और शर्मिंदगी महसूस कर रही थी। काकी के इस बर्ताव से वह क्रोधित हो गई।
“तुम इंतजार नहीं कर सकतीं?” वह धीरे से बोली और काकी को खींचते हए दूर ले गई। “अभी तक मेहमानों ने भी नहीं खाया है। इस तरह लालची होने पर तुम्हें शर्म आनी चाहिए। चुपचाप अपने कमरे में जाओ और प्रतीक्षा करो, तुम्हें भोजन तभी मिलेगा जब पूरा परिवार खा लेगा।”
काकी ने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा और न ही कोई आँसू बहाया। रूपा के तीखे शब्दों ने उसे पूर्णतया चुप करा दिया था। वह धीरे-धीरे सरकती हुई अपने कमरे में वापिस चली गई। भोजन पक चुका था। मेहमान खाने के लिए बैठ गये थे। उनसे कुछ दूरी पर मेहमानों के नौकर भी खाने के लिए बैठ गए थे।
अपने कमरे में, काकी अपने किए पर पश्चाताप कर रही थी। वह रूपा से नाराज नहीं थी। उसे अफसोस था कि उसने इतनी जल्दबाजी क्यों की। मेहमानों को खिलाए बिना वह भोजन की अपेक्षा कैसे
कर सकती थी? अब वह धैर्यपूर्वक तब तक इंतजार करेगी जब तक कि उसे बुलाया नहीं जाता।
लेकिन खाली पेट इंतजार करना बहुत कठिन था। प्रत्येक मिनट एक घंटे की तरह प्रतीत हो रहा था। काफी समय बीत गया। सब कुछ सामान्य प्रतीत हो रहा था। उसे लग रहा था कि मेहमान अब तक खाना खाकर जा चुके होंगे। अब परिवार को बैठकर भोजन करना चाहिए। उसे बुलाने कोई नहीं आया। रूपा अभी भी उससे गुस्सा होगी। वह सोच रही होगी, काकी को भोजन के लिए स्वयं आना चाहिए। वह कोई मेहमान नहीं है, जिसे निमंत्रण भेजकर बुलाया जाए।
एक बार फिर काकी अपने उस बूढ़े शरीर के साथ भोजन की ओर गई। लेकिन उसने बहुत बड़ी गलती कर दी। वहाँ जाकर उसने देखा कि मेहमान अभी भी खाने में व्यस्त हैं।
पंडित बुद्धिराज के हाथ में पूरियों से भरी तश्तरी थी। जैसे ही उसने काकी को देखा, उसने वह तश्तरी नीचे रख दी। उसका चेहरा गुस्से से लाल-पीला हो उठा। उसने काकी का हाथ पकड़कर निर्दयतापूर्वक खींचा और उसे वापिस उसकी अँधेरी कोठरी में ले गया। काकी बेहोश हो गई।
कुछ समय बाद मेहमान खाकर जा चुके थे। परिवार के सदस्यों ने भी अपना भोजन कर लिया था। नौकरों ने भी खा लिया था। किसी को भी काकी की चिंता नहीं थी, सिवाय लाडली के। लाडली अत्यंत दुखी मन से यह सब देख रही थी। वह यह न समझ सकी कि क्यों उसके माता-पिता काकी से इतना कठोर व्यवहार करते हैं?
लाडली काकी के पास जाना चाहती थी और उसे सांत्वना देना चाहती थी, लेकिन माँ के गुस्से के डर से वह वहाँ नहीं गई। उसने पूरियों का अपना हिस्सा नहीं खाया “और उसे अपनी गुड़ियों वाली टोकरी में अपनी काकी के लिए बचाकर रखा।
काकी बहुत खुश होगी जब वह पूरियों को देखेगी, लाडली ने प्रसन्नतापूर्वक सोचा, वह मुझे गले लगाएँगी और धन्यवाद देगी। रात के ग्यारह बज रहे थे। रूपा अपने कमरे में सोने चली गई। लाडली को नींद नहीं आ रही थी। जब उसे विश्वास हो गया कि उसकी माँ अब नहीं उठेगी, उसने गुड़िया की टोकरी उठाई और काकी के कमरे की ओर दबे पाँव बढ़ी।
जब काकी बेहोशी से बाहर आई, उसने पाया कि सब कुछ सामान्य है। उसने महसूस किया कि समारोह समाप्त हो चुका है। हर कोई खाकर सो चुका है सिवाय मेरे, काकी ने उदास होकर सोचा। मैनें क्या माँगा था, केवल थोडा-सा भोजन?
इसके लिए मझे सभी मेहमानों के सामने अपमानजनक ढंग से पशु की भाँति खींचकर अपने कमरे में धकेल दिया गया। किसी ने भी मुझ पर दया नहीं दिखाई। सभी ने पेट-भर खाया होगा और मुझे एक निवाला भी नहीं दिया।
उसके मुरझाए चेहरे पर आँसू बहने लगे, लेकिन उसने मुँह से कोई आवाज नहीं निकाली, इस डर से कि घर पर बाकी बचे मेहमानों की आवभगत में विघ्न न पड़े। तभी एक आवाज उसके कानों में गूंजी, “काकी, उठ जाओ, मैं आपके लिए पूरियाँ लाई हूँ।”
यह लाडली थी। खुशी से काकी उठी और अँधेरे में उसने उस नन्ही लड़की को टटोला। काकी की गोद में बैठकर लाडली ने काकी को पूरियाँ दी।
“क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हें भेजा है?” काकी ने पूछा।
“नहीं यह मेरा हिस्सा है,” लाडली ने कहा।
पाँच मिनट में वह छोटी टोकरी खाली हो गई। “क्या तुम्हारा पेट भर गया, काकी?” बच्ची ने मासूमियत से पूछा।
“नहीं, मेरी बच्ची,” काकी ने कहा। “मैं अभी भी भूखी हूँ, अपनी माँ से मेरे लिए कुछ और भोजन ले आओ।”
वह सो गई है। यदि मैं उसे उठाऊँगी, वह मुझे मारेगी, लाडली ने कहा। काकी अपनी भूख पर अधिक देर तक नियंत्रण नहीं रख सकी। उसकी भूख सिर चढ़कर बोल रही थी जिससे वह सही और गलत में अंतर नहीं रख सकी।
“मेरा हाथ पकड़ो और मुझे उस स्थान पर ले जाओ जहाँ मेहमानों ने अपना भोजन खाया है।” काकी ने लाडली से कहा।
लाडली काकी को उस स्थान पर ले गई जहाँ मेहमानों की जूठी पत्तलें पड़ी थीं। काकी उन पत्तलों में पड़ी जूठन को जल्दी-जल्दी से खाने लगी। उसी क्षण रूपा की नींद खुल गई। लाडली अब काकी के पास नहीं थी। रूपा ने जो वहाँ देखा वह दिल दहला देने वाला था।
परिवार की सबसे बड़ी, ब्राह्मण औरत को उन्होंने इतना छोटा बना दिया था कि वह एक भिखारी की भाँति भोजन के लिए तरस गई। रूपा का हृदय शर्म और आत्म-ग्लानि से भर गया। यह मैंने क्या कर दिया, उसने सोचा।
आज हमने हजारों लोगों को खिलाया है, सैकड़ों रुपया खर्च किया है। लेकिन उस औरत से, जिसकी सम्पत्ति से हम आरामदायक जीवन व्यतीत कर रहे हैं, मैने जानवरों जैसा सलूक किया है। उसे आदर-सत्कार देना तो बहुत दूर, भोजन भी नहीं दिया और वह सब इसलिए क्योंकि वह बूढ़ी है, असहाय है और हम पर निर्भर है।
भगवान से माफी के लिए प्रार्थना करती रूपा ने रसोई का दरवाजा खोला और उस दिन बने पकवानों से थाली भरी। “आओ काकी आओ और खाओ। मैं आज एक महान पाप करने जा रही थी। मुझे। माफ कर दो और भगवान से कहो कि मुझे वह सजा न दे।” उसने कहा।
एक बच्चे की भाँति काकी अपने ऊपर हुए सारे अत्याचारों को क्षण भर में भूल गई और खुशी से खाना खाने लगी। पश्चातापी रूपा निकट बैठ गई और खाना खाते समय काकी के चेहरे पर आई खुशी को स्नेह से देखने लगी।