रानी लक्ष्मीबाई के जीवन का अंतिम युद्ध
(Last battle of Rani Lakshmibai)
प्रभात होने को था, सफेद पीली पौ फटी। सूर्य ने अपनी पहली किरण धरती पर बिखेरी। रानी लक्ष्मीबाई ने गीता के अठारहवें अध्याय का पाठ किया। इसके बाद उन्होंने लाल कुर्ती की मर्दानी पोशाक पहनी। दोनों ओर एक-एक तलवार बाँधी। गले में मोतियों की माला, जिससे युद्ध में उनके सिपाहियों को पहचानने में सुविधा रहे। लोहे के कुले पर चंदेरी की जरतारी का लाल साफा बाँधा।
रानी लक्ष्मीबाई के पाँचों सरदार – मुंदर, जूही, रघुनाथ सिंह, गुलाम मुहम्मद और रामचंद्र देशमुख आ पहुँचे। मुंदर ने कहा, “सरकार, यह घोड़ा लँगड़ा हो गया है।” रानी ने आज्ञा दी, “तुरंत अच्छा-सा मजबूत घोड़ा ले आओ।”
मुंदर घोड़ा लेने गई और सिंधिया सरकार के अस्तबल से बहुत तगड़ा और स्वस्थ घोड़ा चुनकर ले आई। रानी को घोड़ों की बहुत अच्छी पहचान थी। मुंदर से कहा, “यह घोड़ा अड़ सकता है, परंतु काम इसी से चलाना है।”
दूर से शत्रु के बिगुल बजने की आवाज सुनाई दी। तोप के धड़ाके का शब्द सुनाई पड़ा। गोला सन्नाता हुआ कुछ क्षण पहले ही ऊपर से निकलकर किले से जा टकराया। रानी ने रामचंद्र देशमुख को तुरंत आज्ञा दी,
“दामोदर को आज तुम पीठ पर बाँधो। यदि मैं मारी जाऊँ तो तुम किसी तरह इसे दक्षिण पहुँचा देना।
तुम्हें आज मेरे प्राणों से बढ़कर अपनी रक्षा की चिंता करनी होगी। दूसरा काम तुम्हें यह करना है कि यदि मैं मारी जाऊँ तो विधर्मी मेरी देह को छु न पाएँ। अब बस, घोड़ा लाओ और बढ़ो।”
मुंदर घोड़ा ले आई। उसकी आँखें भरी थीं। युद्ध के परिणाम का उसे अंदाजा हो गया था।
अब की बार कई तोपों के धमाके हुए। रानी ने कहा, “ये तोपें तांत्या जी की हैं, दुश्मनों की तोपों का जवाब दे रही हैं।”
जूही सिर पर हाथ फेरकर बोली, “जा अपने मोर्चे पर और छुड़ा दे छक्के दुश्मनों के।” जूही यह कहकर चली गई, “अपनी महारानी का नाम बनाए रखेंगी, जय हो”
मुंदर ने रघुनाथ सिंह से अकेले में कहा, “महारानी का साथ एक क्षण के लिए भी न छोड़ना, वे आज अंतिम युद्ध लड़ने जा रही हैं।”
अंग्रेजों के गोलों की वर्षा-सी हो उठी। जूही का तोपखाना भी थोड़े समय के उपरांत आग उगलने लगा। सूर्य की किरणों से रानी का चेहरा दमक उठा। लाल वर्दी के ऊपर मोतियों का कंठा चमक उठा। रानी ने म्यान से तलवार निकाली और अंग्रेजों के पूर्वी मोर्चे की ओर बढ़ी।
रानी लक्ष्मीबाई आक्रमण पर आक्रमण करते हुए गोरे सवारों को पीछे हटाती चली जा रही थी। कुछ ही समय उपरांत रानी को यह सूचना मिली कि पेशवा की अधिकांश ग्वालियर सेना और सरदार अपने राजा की शरण में चले गए हैं। रानी की लाल कुर्ती सेना तलवारें खींचकर आगे बढ़ने लगी।
कुछ ही समय उपरांत समाचार मिला कि राव साहब के दो मोर्चे छिन गए हैं और अंग्रेज सेना उनमें होकर घुसने लगी है। रानी के पीछे उनकी पैदल पलटन थी, स्थिति सँभालने के लिए उसे आदेश देकर वे एक ओर आगे बढ़ी।
जूही को गोरी पलटन के सवारों ने आ घेरा और वह लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुई। समाचार मिलते ही जूही वाले मोर्चे को सँभालने का प्रबंध किया गया। इतने में ब्रिगेडियर स्मिथ ने छिपे हुए पैदलों को आगे किया। पेशवा की पैदल पलटन के पैर उखड़ गए।
गोरों ने हमला संगीनों से किया था। उन लोगों ने पेशवा की दो तोपों पर भी अधिकार कर लिया। अंग्रेजों की सेना नदी पर आई बाढ़ की भाँति बढ़ने और फैलने लगी।
रानी की रक्षा के लिए लाल कुर्ती सवार अटूट शौर्य और अपार विक्रम दिखाने लगे। कई घंटे सामना होता रहा। रानी धीरे-धीरे पश्चिम-दक्षिण की ओर अपने मोर्चे की शेष सेना से मिलने के लिए मुडी, परंतु बीच में गोरी सेना आ घसी। रानी ने घोड़े की लगाम दाँतों में दबाई और दोनों हाथों से तलवार चलाकर अपनो मार्ग बनाना आरम्भ कर दिया।
दक्षिण-पश्चिम की ओर ‘सोन-रेखा’ नाम का नाला था। आगे चलकर बाबा गंगादास की कुटी। मुंदर रानी के साथ थी, दाएँ-बाएँ रघुनाथ सिंह और रामचंद्र देशमुख । पीछे गुल मुहम्मद और केवल 20-25 बचे लालकुर्ती सवार। अंग्रेजी सेना ने थोडी देर में इन सबके चारों ओर घेरा डाल दिया। रानी की दहत्थी तलवारें आगे का मार्ग साफ करती जा रही थीं।
पीछे के वीर सवारों की संख्या घटते-घटते न के बराबर हो गई थी। उसी समय तांत्या ने रुहेली और अवधी सैनिकों की सहायता से अंग्रेजों के व्यूह पर प्रहार किया। तांत्या कठिन से कठिन व्यूह से होकर बच निकलने की रण-विद्या में पारंगत थे. अतः वे निकल गए। राव साहब उनके साथ थे। सूर्यास्त होने को था।
लाल कुर्ती का अंतिम सवार मारा गया। 10-15 गोरे सवार रानी का पीछा कर रहे थे। रानी ने मुड़कर देखा। रघुनाथ सिंह और गुल महम्मद उनकी संख्या कम कर रहे थे। एक ओर रामचंद्र दामोदर राव की रक्षा करते हुए लड़ रहा था। मुंदर लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुई।
रघुनाथ सिंह ने लड़ते-लड़ते अनेक दुश्मनों को समाप्त कर दिया। इतने में रानी के सीने के नीचे एक गोरे की संगीन हल पड़ी। उन्होंने तलवार से उसे समाप्त कर दिया। रानी के पेट से लगातार खून बह रहा था। उनके मन में तुरंत विचार उठा, “स्वराज्य की नींव का पत्थर बनने जा रही हूँ”- और उन्होंने रघुनाथ सिंह से कहा, “मेरी देह को गोरे न छूने पाएँ।” वे आगे बढ़ गईं।
पीछा करने वाले गोरे केवल पाँच रह गए थे। गुल मुहम्मद रानी के निकट आ पहुँचे। उन्होंने सोन नाला पार करने के लिए घोड़े को बढ़ाया, परंतु वह अड़ गया। अंग्रेज सवार आ पहुँचे। एक गोरे ने पिस्तौल दागी। रानी की बाईं जाँघ पर गोली पड़ी। रानी ने बाएँ हाथ की तलवार फेंककर घोड़े की लगाम साधी और दूसरी जाँघ से अपना आसन सँभाला। उन्होंने एक गोरा सवार और मारा।
इतने में उनके पीछे एक और आ गया। रानी का घोड़ा पिछले दोनों पैरों पर खड़ा होकर अटक गया। रानी को पीछे खिसकना पड़ा। एक जाँघ जख्मी हो चुकी थी। पेट से खून की धार बह रही थी। गुल मुहम्मद आगे बढ़े
हुए गोरे सवार की ओर लपका, परंतु उसके निकट आने से पहले ही गोरे सवार ने रानी पर तलवार चला दी। उनके सिर का दायाँ हिस्सा कट गया और आँख बाहर निकल पड़ी।
इस पर भी तत्काल उन्होंने उस पर तलवार चलाई, जो उसके कंधे पर पड़ी। गुल मुहम्मद ने उसके दो टुकड़े कर दिए। दो-तीन अंग्रेज सवार बाकी बचे थे। वे मैदान छोड़कर भाग गए। रामचंद्र देशमुख ने घोड़े से गिरती हुई रानी को सहारा दिया।
गुल मुहम्मद फफक-फफककर रोने लगा। रघुनाथ सिंह और देशमुख ने रानी को संभाल कर उतार लिया और घोडे को लात मारकर भगा दिया। वे दोनों रानी को साधकर बाबा गंगादास की कुटी पर ले गए। अभी उनका प्राणांत नहीं हुआ था।
बिसूरते हुए दामोदर राव को एक ओर बिठलाकर देशमुख ने रानी को अपनी वर्दी पर लिटाया। बाबा गंगादास ने कहा, “सीता और सावित्री के देश की पुत्री है यह!” रानी ने पानी के लिए मुँह खोला। बाबा तुरंत गंगाजल ले आए और रानी को पिलाया।
उन्हें कुछ होश आया। उनके मुँह से ‘हर हर महादेव’ निकला, फिर “ओऽम वासुदेवाय नमः”। इसके पश्चात् वे अचेत हो गईं। उनका मुखमंडल प्रदीप्त हो गया। सूर्यास्त हो गया। वे सब रो पड़े।
बाबा ने कहा, “प्रकाश अनंत है। कण को भासमान करता है। फिर उदय होगा और कण-कण मुखरित हो उठेगा। रानी अमर हो गई है।”
रानी के शव-दाह का प्रबंध होने लगा। पड़ोस में घास की छोटी गंजी थी। बाबा ने इसे अपर्याप्त समझकर अपनी कुटी की लकड़ी निकालने को कहा। कुटी की लकडी को उधेड़ने का काम जल्दी हो गया। रानी का कंठा उतारकर दामोदर राव के पास रख दिया। मोतियों की एक छोटी-सी कंठी उनके गले में रहने दी। उनका कवच भी उनके शव के साथ रहने दिया। शव को चिता पर रख दिया गया। अग्नि-संस्कार कर दिया गया। शीघ्र ही चिता प्रज्ज्वलित हो गई।
कुटी की भूमि पर जो रक्त बह गया था, उसे देशमुख ने साफ किया, परंतु उस रक्त ने जो इतिहास लिख डाला था, वह अक्षय और अमर हो गया।