पश्चिमी विचारधारा के अनुसार उद्देश्यों का वर्गीकरण, जिसे हम सर्वाधिक प्रामाणिक भी मानते हैं और उद्देश्यों का निर्धारण भी इसी आधार पर करते हैं, किन्तु यदि भारतीय चिन्तन के आधार पर शिक्षा एवं शिक्षण के उद्देश्यों पर विचार किया जाय तो भारतीय विचारधारा के आधार पर हमारा अपना विचार भी यही है कि जब तक कोई बात भली-भाँति समझ में न आ जाय तब तक उसका सही और सार्थक उपयोग सम्भव नहीं।
भारतीय विचारधारा के अनुसार जानकारी का नाम 'ज्ञान' है ही नहीं, एक लोक प्रचलित लोकोक्ति के अनुसार- पढ़े-लिखे लोग भी जब विवेक से काम नहीं लेते तब उनके लिये यही कहा जाता है- "पढ़ा है, पर गुना नहीं"
अर्थात् पढ़ने-लिखने के पश्चात् भी विवेकशीलता जैसे गुणों का विकास न हो तो वह पढ़ना-लिखना बेकार है। कहने का आशय यह है कि पढ़े-लिखे व्यक्तियों को विवेकशील होना ही चाहिये।
अतः भारतीय चिन्तन में अपने राष्ट्रीय ग्रन्थ-श्रीमद्भगवद्गीता को ही लें तो उसमें तीन प्रकार की योग साधना का उल्लेख है- योग साधन के ये तीन प्रकार हैं-
ज्ञानयोग → भक्ति योग→ कर्मयोग
गीता के विस्तार में न जाकर यहाँ यह बताना ही पर्याप्त है कि अर्जुन को महाभारत युद्ध से पूर्व युद्ध की इच्छा वाले अपने सम्बन्धियों तथा परिचितों को मारकर राज्य सुख न भोगने की मोहवश जो इच्छा जाग्रत होती है, उसी का समाधान भगवान कृष्ण ने अर्जुन द्वारा उठाई गयी शंकाओं तथा स्वाभाविक प्रश्नों का सहज भाव से उत्तर देते हुए गीता में किया है।
कक्षा में भी ठीक यही स्थिति होती है। शिक्षक को कृष्ण की भूमिका निभानी पड़ती है तो शिक्षार्थी या शिक्षार्थियों को अर्जुन की।
गीता के ज्ञान पर जो कुछ भी अर्जुन ने शंकाएँ उठाई हैं- वे सभी शिक्षण का ज्ञानात्मक पक्ष हैं। सब कुछ समझने के पश्चात् अर्जुन का मोह भंग होना समूचे परिदृश्य को ध्यान में रखते अवबोधित ज्ञान का भावपक्ष तथा अन्त में भगवान कृष्ण के सफल मार्गदर्शन (Guidance) में युद्धरत होकर शत्रुओं का संहार करना क्रियात्मक (Conative) पक्ष है। इस प्रकार गीता में जिन तीनों योग साधनाओं को समझाया गया है, उसकी आवश्यकता कक्षा में भी है।
इस आधार पर पूरी तरह स्पष्ट है कि शैक्षणिक उद्देश्यों के निर्धारण में विश्व के महानतम् ग्रन्थ 'गीता' ब्लूम तथा साथियों के उद्देश्यों के “वर्गीकरण विज्ञान" से कहीं आगे हैं।
सुविचारित तथा शाश्वत भी है; क्योंकि उसका सम्बन्ध तर्क पर आधारित है। साथ ही तर्क का सम्बन्ध बौद्धिक प्रखरता तथा सर्वपक्षीय ज्ञान से होता है। यही नहीं महाकवि जयशंकर प्रसाद का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कामायनी' भी 'ज्ञान', 'भावना' तथा 'कर्म'-तीनों के समन्वय पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक आधार पर लिखा गया महाकाव्य है।
कहने का आशय यह है कि भारतीय चिन्तन किसी प्रकार भी पश्चिमी चिन्तन से पीछे नहीं; अपितु समय, सोच आदि सभी आधारों पर आगे है।