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Pooja in Pedagogy
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Aapake vichaar mein shikshan uddeshyon ke nirdhaaran ke kya aadhaar hone chaahiye? spasht keejiye, आपके विचार में शिक्षण उद्देश्यों के निर्धारण के क्या आधार होने चाहिये? स्पष्ट कीजिये, What do you think should be the basis for determining learning objectives? Clarify.

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Aswathi
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शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्यों के निर्धारण के कई आधार हो सकते हैं क्योंकि सभी विद्यार्थियों के बौद्धिक स्तर, शैक्षिक स्तर, क्षेत्र, वर्ग आदि कई बातों को ध्यान में रखते हुए सभी को पढ़ाने हेतु समान उद्देश्य निर्धारित किये जा सकें, यह कभी भी सम्भव नहीं। अत: शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण के निम्नलिखित आधार हैं:-

1. विद्यार्थियों की आयु

विद्यार्थियों की आयु का शिक्षण के उद्देश्यों के निर्धारण से क्या सम्बन्ध है? इसे समझने की दृष्टि से इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि छोटे बालक किन बातों को अधिक तथा कैसे सीखते हैं? पुन: ज्यों-ज्यों उनकी आयु बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उनके सीखने की विषय-वस्तु तथा सीखने की क्रियाओं में क्या अन्तर आने लगता है?

इन दोनों बातों पर विचार करें तो बहुत छोटे बालक पहले उन बातों को सीखते हैं जो उन्हें दिखाई देती हैं। उसके पश्चात् ज्यों-ज्यों वे बोलने लगते हैं त्यों-त्यों उनके सीखने में सुनी हुई बातों को जानने के प्रति रुचि बढ़ती जाती है। वे शब्दों को समझने लगते हैं। यह क्रम उनकी आयु में वृद्धि होने के साथ-साथ आगे से आगे चलता ही रहता है।

2. विद्यार्थियों का बौद्धिक विकास

बालकों की बुद्धि का विकास एक निश्चित सीमा तक आयु के बढ़ने के साथ-साथ होता है। इस दृष्टि से छोटे बच्चों की ग्राह्य क्षमता कम होती है तो किशोरों तथा युवाओं की अपेक्षाकृत अधिक। पहले वे केवल मूर्त वस्तुओं आदि को ही जाने पाते थे, आयु वृद्धि के साथ-साथ बुद्धि तथा बुद्धि के विकास के साथ-साथ वे अमूर्त तत्त्वों की अवधारणाओं को भी समझने लगते हैं।

3. लैंगिक विभिन्नता

प्रारम्भिक अवस्था में बालक-बालिकाएँ केवल लड़की-लड़के की पहचानगत अन्तर को तो समझते हैं उससे आगे कुछ नहीं, परन्तु धीरे-धीरे ज्यों ही वे किशोरावस्था में प्रवेश करते हैं त्यों ही, वे अपने अस्तित्वगत अन्तर को भी समझने लगते हैं।

इस दृष्टि से प्रारम्भिक स्तर पर उनकी पढ़ाई में कोई विशेष अन्तर नहीं होता, लेकिन बड़े होने पर उनमें शारीरिक, रुचिगत आदि कई प्रकार के अन्तर स्पष्ट झलकने लगते हैं। इस दृष्टि से उन दोनों के शिक्षणगत विषयों के चयन में अन्तर आ जाता है तो व्यवहार परिवर्तन की दृष्टि से उद्देश्यों के निर्धारण में भी।

4. वर्गगत अन्तर

वर्गगत अन्तर की दृष्टि से यहाँ हमारा आशय सम्प्रदाय, जाति, क्षेत्र आदि किसी से भी न होकर वर्गीकरण के आधार की दृष्टि से है। बालकों अथवा व्यक्तियों के व्यक्तित्व के जितने भी पहलू शरीर, बुद्धि, मन, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति आदि की दृष्टि से जिस आधार को लिया जाय उसी आधार पर उस पहलू को कई वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

उदाहरण-स्वरूप शरीर को ही लें तो कोई कद की दृष्टि से छोटा है तो कोई बड़ा; कोई स्वस्थ है तो कोई रोगी; कोई शारीरिक अंगों की दृष्टि से पूर्ण है, तो कोई विकलांग। विकलांगता में भी किसी को आँखों से दिखाई नहीं देता तो कोई बोलने तथा सुनने में असमर्थ है।

5. शिक्षा की वैयक्तिक आवश्यकता

मनोवैज्ञानिक तथा शाश्वत सत्य तो यही है कि सृष्टि के रचयिता की रचना इतनी विचित्र है कि कभी भी दो व्यक्ति यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चे भी सभी दृष्टियों से सर्वथा समान नहीं होते। कहीं शारीरिक भिन्नताएँ हैं तो कहीं बुद्धिगत तथा कहीं मनोगत आदि प्रकार की विभिन्नताएँ होती ही हैं। इन्हीं विभिन्नताओं के परिणामस्वरूप रुचियाँ तथा आवश्यकताएँ भी अलग-अलग होती हैं। इन्हीं दृष्टियों से कोई कुछ पढ़ना चाहता है तो कोई कुछ।

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