शिशु का व्यक्तित्व सामाजिक पर्यावरण में विकसित होता है। वंशानुक्रम से जो योग्यताएँ उसे प्राप्त होती हैं, उनको जाग्रत करके सही दिशा देना समाज का ही कार्य है।
इस प्रकार एलेक्जेण्डर ने लिखा है-"व्यक्तित्व का निर्माण शून्य में नहीं होता, सामाजिक घटनाएँ तथा प्रक्रियाएँ बालक की मानसिक प्रक्रियाओं तथा व्यक्तित्व के प्रतिमानों को अनवरत रूप से प्रभावित करती रही हैं।"
जन्म के समय बालक इतना असहाय होता है कि वह समाज के सहयोग के बिना मानव प्राणी के रूप में विकसित नहीं हो सकता। अतः शिशु का पालन-पोषण प्रत्येक समाज अपनी विशेषताओं को विभिन्न कार्यों में प्रकट करता है। इसे बालक का सामाजिक विकास कहते हैं।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि जन्म के समय शिशु बड़ा ही आत्मकेन्द्रित होता है। जैसे-जैसे वह सामाजिक परिवेश में सम्पर्क में आता है उसका आत्म-केन्द्रित व्यवहार समाप्त होता जाता है।
जैसा कि क्रो एवं क्रो ने लिखा है- "जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है और न असामाजिक, पर वह इस स्थिति में अधिकसमय तक नहीं रहता है।"
अतः हम यहाँ पर श्रीमती हरलॉक के आधार पर शिशु के सामाजिक विकास को प्रस्तुत करते हैं-
क्रम सं. |
आयु-माह |
सामाजिक व्यवहार का रूप |
1. |
प्रथम माह |
ध्वनियों में अन्तर समझना। |
2. |
द्वितीय माह |
मानव ध्वनि पहचानना, मुस्कराकर स्वागत करना। |
3. |
तृतीय माह |
माता के लिये प्रसन्नता एवं माता के अभाव में दुख। |
4. |
चतुर्थ माह |
परिवार के सदस्यों को पहचानना। |
5. |
पंचम् माह |
प्रसन्नता एवं क्रोध में प्रतिक्रिया व्यक्त करना। |
6. |
षष्ठम् माह |
परिचितों से प्यार एवं अन्य लोगों से भयभीत होना। |
7. |
सप्तम् माह |
अनुकरण के द्वारा हावभाव को सीखना। |
8. |
अष्ठम नवम् माह |
हावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों (प्रसन्नता, क्रोध तथा भय) का प्रदर्शन करना। |
9. |
नवम् माह |
हावभाव के द्वारा विभिन्न संवेगों (प्रसन्नता, क्रोध तथा भय) का प्रदर्शन करना। |
10. |
दशम् माह |
प्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास। |
11. |
ग्यारहवें माह |
प्रतिछाया के साथ खेलना, नकारात्मक विकास। |
12. |
दूसरे वर्ष की अवधि में |
बड़ों के कार्यों में मदद देना, सहयोग सहानुभूति का प्रकाशन। |
तृतीय वर्ष तक बालक आत्म-केन्द्रित रहता है। वह अपने लिये ही कार्य करता है, अन्य किसी के लिये नहीं। जब वह विद्यालय में दो या अधिक बालकों के साथ होता है तो उसमें 'सामाजिकता के भाव' का विकास होता है। इस प्रकार से वह चतुर्थ वर्ष के समाप्त होने तक 'बहिर्मुखी व्यक्तित्व' को धारण करना प्रारम्भ कर देता है।
शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु का व्यवहार परिवार से बाह्य परिवेश की ओर प्रस्तुत होता है। जैसा कि श्रीमती हरलॉक ने लिखा है- "शिशु दूसरे बच्चों के सामूहिक जीवन से समायोजन स्थापित करना, उनसे वस्तु विनिमय करना और खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझीदार बनाना सीख जाता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है, उसके द्वारा स्वीकृत या प्रचलित प्रतिमान के अनुसार स्वयं को बनाने की चेष्टा करता है।"
शिशु का संसार उसका परिवार होता है, जबकि बालक का संसार परिवार के बाहर बालको का झुण्ड और विद्यालय आदि। अत: इसका क्षेत्र काफी बढ़ जाता है। बालक विभिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जन द्वारा सामाजिकता का विकास करता है।
अतः हम बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास को निम्न प्रकार से प्रस्तुत करते हैं-
1. सामाजिक भावना (Social feeling)
इस अवस्था के बालक एवं बालिकाओं में सामाजिक जागरूकता, चेतना एवं समाज के प्रति रुझान विशेष मात्रा में पाया जाता है। उनका सामाजिक क्षेत्र व्यापक एवं विकसित होने लगता है। वह विद्यालय के पर्यावरण से अनुकूलन करना. नये मित्र बनाना और सामाजिक कार्यों में भाग लेना आदि सीखते हैं।
2. आत्म-निर्भरता (Self dependency)
बाल्यावस्था में बच्चे स्वयं को स्वतन्त्र मानकर आत्म-सम्मान प्राप्त करते हैं। वे स्वयं को आत्म-निर्भर बनाने का प्रयास करते हैं। वे परिवार को छोड़कर बच्चों के साथ समय बिताते हैं। क्रियाएँ करते हैं और निर्णय भी लेते हैं।
वास्तविकता तो यह है कि वे अपनी आयु वर्ग के साथ प्रसन्न रहते हैं, न छोटों के साथ खेलते हैं और न बड़ों के क्रियाकलापों में रुचि रखते हैं।
3. समूह प्रवृत्ति (Group tendency)
इस अवस्था के बालक इतने क्रियाशील एवं सक्रिय होते हैं कि वे अपनी अवस्था के बालकों का समूह बना लेते हैं। आज खेल समूह, सेवा समूह एवं सांस्कृतिक समूह आदि प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। बालक अपने समूह के नियमों, मान्यताओं आदि को पसन्द करते हैं और अन्य समूह के समक्ष अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करते हैं। वे ऐसे कार्य करते हैं, जिनसे उनका समूह उन्हें विशिष्ट सदस्य का महत्त्व दे।
4. नागरिक गुणों का विकास (Development of civilization features)
बाल्यावस्था में बालकों में आदतों, चारित्रिक गुणों एवं नागरिक गुणों आदि का विकास होता है। वे अपने माता-पिता, अध्यापक या विशिष्ट प्रभाव के व्यक्तित्वों के प्रति आकर्षित होते हैं और उनकी विशेषताओं को सीखते हैं। वे स्वयं को सुखी, धनवान, विद्वान्, नेता एवं सामाजिक प्रतिष्ठा आदि के रूप में देखना चाहते हैं। अत: बाल्यावस्था ही नागरिक गुणों के विकास एवं स्थायित्व की सही अवस्था है।
5. वैयक्तिकता का विकास (Development of individuality)
बाल्यावस्था में पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व स्वभावों का अलग-अलग विकास होना प्रारम्भ हो जाता है, बालक अधिकांश समय बालकों के साथ व्यतीत करते हैं और बालिकाएँ बालिका समूह के साथ। इस अवस्था में दोनों में यौन भिन्नता के साथ वैयक्तिक अन्तर स्थापित होने लगता है। उनकी आदतों, रुचियों, मनोवृत्ति और रहन-सहन आदि में पर्याप्त भिन्नता स्पष्ट होने लगती है।
6. भावना ग्रन्थि का विकास (Development of feeling complex)
इस अवस्था में लड़कों में 'आडिपस' और लड़कियों में 'एलकटा' भावना ग्रन्थि का विकास होने लगता है। 'आडिपस ग्रन्थि' के कारण पुत्र अपनी माता को अधिक प्यार करने लगता है और 'एलकटा ग्रन्थि' के कारण लड़की अपने पिता को अधिक चाहने लगती है।
यह प्रकृति का नियम है कि विषमलिंगी प्यार बाल्यावस्था से प्रारम्भ होकर युवावस्था में (शादी होने पर) समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि लड़के एवं लड़कियाँ अपनी रुचियों एवं कार्यों में अपनी-अपनी भावना ग्रन्थियों का प्रदर्शन करते हैं। इस प्रकार से उनको आत्मिक सुख एवं सन्तोष मिलता है। इसी आधार पर वे अपने भविष्य को निश्चित करते हैं।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
किशोरावस्था मानवीय जीवन की जटिल अवस्था होती है। अत: सामाजिक विकास पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। किशोर एवं किशोरी, व्यक्ति-व्यक्ति के लिये, व्यक्ति समूह के लिये और समूह अन्य समूहों के लिये होने वाली अन्त:क्रियाओं के माध्यम से सामाजिक सम्बन्धों का विकास करते हैं।
किशोरावस्था के इस सामाजिक विकास को निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत करते हैं-
1. आत्म-प्रेम (Auto eroticism)
इस अवस्था में लड़के एवं लड़कियाँ स्वयं से अधिक प्रेम स्थापित करने लगते हैं। वे स्वयं को आकर्षक बनाने, सजाने, सँवारने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। इसका मुख्य कारण विषम लिंगीय आकर्षण होता है।
विद्यालय स्तर पर किये गये अध्ययनों से प्रकट होता है कि किशोरियाँ इस बात में रुचि रखती हैं कि कौन-सा किशोर उसको देखकर क्या सोचता है? और किशोर तो किशोरियों के बारे में बातचीत करते ही रहते हैं। अत: आत्म-प्रेम का भाव अचेतन अवस्था की लिंगीय चेतनता ही है।
2. समलिंगीयसमूह (Homo-sexual group)
इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियों को अपनी लिंगीय बनावट का पूर्ण अनुभव होने लगता है। वे समान लिंग के प्रति रुचि जाग्रत करने लगते हैं। वे अपने आयु समूह के सक्रिय एवं प्रतिष्ठित सदस्य बन जाते हैं। वे अपने अन्दर अवस्था एवं त्याग को आवश्यक गुण के रूप में स्थापित करते हैं।
जब कभी उनकी अवस्था एवं त्याग को ठेस लगती है तो वे समाज के साथ असामान्य व्यवहार प्रकट करने लगते हैं और उनमें आन्तरिक संघर्ष उत्पन्न हो जाता है।