परिभाषा
कुण्डलिया मात्रिक छंद है। एक दोहा तथा दो रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। दोहे का अंतिम चरण ही प्रथम रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होती है।
उदाहरण
(1)
बेटे-बेटी में करो, समता का व्यवहार।
बेटी ही संसार की, होती सिरजनहार।।
होती सिरजनहार, स्रजन को सदा सँवारा।
जिसने ममता को उर में जीवन भर धारा।।
कह 'मयंक' दामन में कँटक रही समेटे।
बेटी माता बनकर जनती बेटी-बेटे।।
(2)
हरे-भरे हों पेड़ सब, छाया दें घनघोर।
उपवन में हँसते सुमन, सबको करें विभोर।।
सबको करें विभोर, प्रदूषण हर लेते हैं।
कंकड़-पत्थर खाकर, मीठे फल देते हैं।।
कह 'मयंक' आचरण, विचार साफ-सुथरे हों।
उपवन के सारे, पादप नित हरे-भरे हों।।
मात्राओं की गिनती कैसे करें-
काव्य में छंद का अपना महत्व है। छंद रचना के लिए मात्राओं को समझना एवं मात्राओं कि गिनती करने का ज्ञान होना आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि वर्णों को स्वर एवं व्यंजन में विभक्त किया गया है। स्वरों की मात्राओं की गिनती करने का नियम निम्नवत है-
अ, इ, उ की मात्राएँ लघु (।) मानी गयी हैं।
आ, ई, ऊ, ए, ऐ ओ और औ की मात्राएँ दीर्घ (S) मानी गयी है।
क से लेकर ज्ञ तक व्यंजनों को लघु मानते हुए इनकी मात्रा एक (।) मानी गयी है। इ एवं उ की मात्रा लगने पर भी इनकी मात्रा लघु (1) ही रहती है, परन्तु इन व्यंजनों पर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राएँ लगने पर इनकी मात्रा दीर्घ (S) हो जाती है।
अनुस्वार (.) तथा स्वरहीन व्यंजन अर्थात आधे व्यंजन की आधी मात्रा मानी जाती है।सामान्यतः आधी मात्रा की गणना नहीं की जाती परन्तु यदि अनुस्वार (।) अ, इ, उ अथवा किसी व्यंजन के ऊपर प्रयोग किया जाता है तो मात्राओं की गिनती करते समय दीर्घ मात्रा मानी जाती है किन्तु स्वरों की मात्रा का प्रयोग होने पर अनुस्वार (.) की मात्रा की कोई गिनती नहीं की जाती।
स्वरहीन व्यंजन से पूर्व लघु स्वर या लघुमात्रिक व्यंजन का प्रयोग होने पर स्वरहीन व्यंजन से पूर्ववर्ती अक्षर की दो मात्राएँ गिनी जाती है। उदाहरण के लिए अंश, हंस, वंश, कंस में अं हं, वं, कं सभी की दो मात्राए गिनी जायेंगी। अच्छा, रम्भा, कुत्ता, दिल्ली इत्यादि की मात्राओं की गिनती करते समय अ, र, क तथा दि की दो मात्राएँ गिनी जाएँगी, किसी भी स्तिथि में च्छा, म्भा, त्ता और ल्ली की तीन मात्राये नहीं गिनी जाएँगी। इसी प्रकार त्याग, म्लान, प्राण आदि शब्दों में त्या, म्ला, प्रा में स्वरहीन व्यंजन होने के कारण इनकी मात्राएँ दो ही मानी जायेंगी।
अनुनासिक की मात्रा की कोई गिनती नहीं की जाती. जैसे-
हँस, विहँस, हँसना, आँख, पाँखी, चाँदी आदि शब्दों में अनुनासिक का प्रयोग होने के कारण इनकी कोई मात्रा नहीं मानी जाती।
अनुनासिक के लिए सामान्यतः चन्द्र -बिंदु का प्रयोग किया जाता है. जैसे -
साँस, किन्तु ऊपर की मात्रा वाले शब्दों में केवल बिंदु का प्रयोग किया जाता है, जिसे भ्रमवश कई पाठक अनुस्वार समझ लेते है.जैसे- पिंजरा, नींद, तोंद आदि शब्दों में अनुस्वार ( . ) नहीं बल्कि अनुनासिक का प्रयोग है।