वीर रस की कविता (Veer Ras Ki Kavita) : रामधारी सिंह दिनकर

Veer Ras Ki Kavita - Ramdhari Singh Dinkar
Veer Ras Ki Kavita – Ramdhari Singh Dinkar

रामधारी सिंह दिनकर की वीर रस की कविता

रामधारी सिंह दिनकर (23 सितंबर 1908 – 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि, निबंधकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें “राष्ट्रकवि” के रूप में जाना जाता है। उनकी कविताएँ ओज, विद्रोह, और राष्ट्रवाद की भावना से भरपूर हैं।

जीवन परिचय:

  • जन्म: 23 सितंबर 1908, सिमरिया, बेगूसराय (बिहार)।
  • शिक्षा: पटना विश्वविद्यालय से स्नातक।
  • करियर: स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई, और बाद में सरकारी पदों पर कार्य किया।
  • निधन: 24 अप्रैल 1974।

रामधारी सिंह दिनकर ने वीर रस, श्रृंगार रस और सामाजिक चेतना से जुड़ी कविताएँ लिखीं। उनकी रचनाएँ संघर्ष, क्रांति और मानवीय भावनाओं का प्रतीक हैं।

प्रमुख काव्य रचनाएँ:

  1. रश्मिरथी – कर्ण की महाभारत से प्रेरित कहानी।
  2. परशुराम की प्रतीक्षा – शौर्य और साहस की कहानी।
  3. उर्वशी – प्रेम और सौंदर्य पर आधारित।
  4. कुरुक्षेत्र – युद्ध और शांति का विमर्श।

गद्य रचनाएँ:

  1. संस्कृति के चार अध्याय – भारतीय संस्कृति का विश्लेषण।
  2. हिंदी साहित्य का इतिहास

सम्मान और पुरस्कार:

  • 1959 में पद्म भूषण।
  • ज्ञानपीठ पुरस्कार (1972) उनकी कृति “उर्वशी” के लिए।
  • भारत सरकार ने उन्हें “राष्ट्रीय कवि” की उपाधि दी।

दिनकर की कविताएँ ओजस्वी, प्रेरणादायक और भारत की संस्कृति और गौरव को चित्रित करने वाली हैं। उन्हें महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं से प्रेरणा मिली।

उद्धरण:

“जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।”

रामधारी सिंह दिनकर भारतीय साहित्य और राष्ट्रवाद के लिए सदैव स्मरणीय रहेंगे।

वीर रस की कविता (रामधारी सिंह दिनकर)

सच है, विपत्ति जब आती है,

कायर को ही दहलाती है,

सूरमा नहीं विचलित होते,

क्षण एक नहीं धीरज खोते,

विघ्नों को गले लगाते हैं,

काँटों में राह बनाते हैं।

मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं,

संकट का चरण न गहते हैं,

जो आ पड़ता सब सहते हैं,

उद्योग – निरत नित रहते हैं,

शूलों का मूल नसाते हैं,

बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,

टिक सके आदमी के मग में?

ख़म ठोंक ठेलता है जब नर

पर्वत के जाते पाँव उखड़,

मानव जब जोर लगाता है,

पत्थर पानी बन जाता है।

गुन बड़े एक से एक प्रखर,

हैं छिपे मानवों के भीतर,

मेहँदी में जैसी लाली हो,

वर्तिका – बीच उजियाली हो,

बत्ती जो नहीं जलाता है,

रोशनी नहीं वह पाता है।

~ रामधारी सिंह “दिनकर”

hai, vipatti jab aatee hai,

kaayar ko hee dahalaatee hai,

soorama nahin vichalit hote,

kshan ek nahin dheeraj khote,

vighnon ko gale lagaate hain,

kaanton mein raah banaate hain.

munh se na kabhee uf kahate hain,

sankat ka charan na gahate hain,

jo aa padata sab sahate hain,

udyog – nirat nit rahate hain,

shoolon ka mool nasaate hain,

badh khud vipatti par chhaate hain.

hai kaun vighn aisa jag mein,

tik sake aadamee ke mag mein?

kham thonk thelata hai jab nar

parvat ke jaate paanv ukhad,

maanav jab jor lagaata hai,

patthar paanee ban jaata hai.

gun bade ek se ek prakhar,

hain chhipe maanavon ke bheetar,

mehandee mein jaisee laalee ho,

vartika – beech ujiyaalee ho,

battee jo nahin jalaata hai,

roshanee nahin vah paata hai.

~Ram Dhari Singh “Dinkar”

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