ऋग्वेदिक काल की सामाजिक स्थिति
ऋग्वेदिक काल में व्यवसाय के आधार पर समाज को अलग-अलग वर्गों में बांटा गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल में व्यवसाय के आधार पर चार वर्णों का उल्लेख किया गया है, यह वर्गीकरण जातिगत व्यवस्था से भिन्न था। ऋग्वेदिक काल में परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई हुआ करता था, समाज मुख्यतः पितृसत्तात्मक था, इसके बावजूद स्त्रियों का स्थान समाज में उच्च था।
ऋग्वेदिक काल में पुत्रों की भाँती पुत्रियों का भी उपनयन संस्कार भी किया जाता था तथा उन्हें भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। ऋग्वेदिक काल में कई प्रसिद्ध स्त्री विद्वान हुई हैं, उन्होंने धार्मिक रचनाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया।ऋग्वेदिक काल में अपाला, घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा और सिक्ता ने वैदिक ऋचाओं की रचना की। इन विद्वान् स्त्रियों को “ऋषि” कह कर संबोधित किया गया है। जीवन भारत धर्म और दर्शन का अध्ययन करने वाली स्त्रियों को ब्रह्मावादिनी कहा जाता है। ऋग्वेद में “पत्नी की गृह है” कहकर महिलाओं के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। ऋग्वेदिक काल में स्त्रियों को कुछ राजनीतिक अधिकार भी प्राप्त थे, उन्हें अपने पति के साथ यज्ञ में भाग लेने का अधिकार भी प्राप्त था।
ऋग्वेदिक काल में सामाजिक संगठन का आधार गोत्र था, लोगों में अपने कबीले के प्रति आस्था थी, जिसे जन भी कहा जाता था। शुरू में आर्य संगठित थे, वे विश नामक कबीले से सम्बंधित थे, बाद में यह तीन भागों पुरोहित, राजन तथा सामान्य वर्ग में बंट गया। इस दौरान अलग-अलग लोगों के लिए वर्ण शब्द का उपयोग किया जाने लगा।