लेखक ने देखा कि वह स्त्री फुटपाथ पर बैठकर फफक-फफककर रोए चली जा रही थी। लेखक की पोशाक तथा स्थिति ऐसी थी कि उसके साथ बाजार में बैठकर उसका हाल-चाल जानना कठिन था। इससे उसे भी संकोच होता तथा लोग भी व्यंग्य करते। इसलिए वह चाहकर भी उसके रोने का कारण नहीं जान पाया। पोशाक हमारे लिए उस समय बंधन और अड़चन बन जाती है जब हम अपने से निचले स्तर के व्यक्ति के दुख में शामिल होकर सहानुभूति प्रकट करना चाहते हैं तब पोशाक हमारे आड़े आ जाती है।