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Pratham Singh in इतिहास
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गुलाम वंश के पतन के कारण बताइये

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Deva yadav
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गुलाम-वंश के पतन के लिए निम्नलिखित प्रमुख कारण उत्तरदायी थे 

गुलाम-वंशीय शासन की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ई. में की थी तथा 1290 ई. में कैकुबाद की
हत्या के साथ ही दिल्ली सल्तनत पर गुलाम-वंश के शासन की समाप्ति हो गयी। इन 85 वर्षों के शासनकाल में
गुलाम वंश ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे, किन्तु इल्तुतमिश व बलबन जैसे शक्तिशाली शासकों के समय में
यह नहीं सोचा जा सकता था कि इस वंश का पतन इतनी शीघ्रता से हो जायेगा। गुलाम वंशीय शासन में
कुछ तो मूलभूत दोष थे तथा कुछ इसके सुल्तानों की नीतियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हो गये। इन सब दोषों
ने एक साथ मिलकर इस वंश का पतन कर दिया।

(1) विदेशी शासन (Foreign Rule)-गुलाम-वंशीय शासक विदेशी थे। भारतीय जनता हिन्दू थी तथा
इनसे घृणा करती थी। हिन्दू-मुसलमान के मध्य परस्पर सहयोग की भावना का तब जन्म नहीं हुआ था। ऐसी
स्तिथि में गुलाम-शासकों को हिन्दू जनता के प्रति सहिष्णुता की नीति का पालन करते हुए उनका सहयोग
प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए था। इसके विपरीत गुलाम शासकों ने हिन्दुओं के प्रति कठोर नीति
अपनायी। वरनी ने लिखा है, ‘बलवन ब्राह्मणों का बड़ा शत्रु था तथा उनका समूल नाश करना चाहता था क्योकि
वह उन्हें कुफ्र की जड़ समझता था।” ब्राह्मणों को हिन्दू धर्म के अन्तर्गत पूज्य माना जाता था। इससे हिन्दुओं
का आक्रोश गुलाम-शासकों के प्रति बढ़ता गया तथा उन्होंने निरन्तर अपनी स्वतन्त्रता का प्रयास किया।

(2) निरंकुश शासक (Autocrate Kings)-गुलाम-शासकों का शासन निरंकुशता तथा स्वेच्छाचारिता
पर आधारित था। लोक-कल्याण व जनहित की भावना का सर्वथा अभाव था। सुल्तानों द्वारा अपने विरोधियों
के प्रति अत्यन्त कठोर व दमनकारी नीति अपनायी जाती थी। जरा भी शक होने पर हत्या करवाने से भी
गुलाम-शासक नहीं चूकते थे। अमानुषिक अत्याचारों व भीषण नरसंहारों की घटनाओं से यह युग परिपूर्ण है।
अत: सुल्तान के शत्रुओं की संख्या बढ़ती ही जाती थी। इन परिस्थितियों में यदि सुल्तान योग्य एवं कर्मठ
होता था तो वह स्थिति को संभाले रहता था, किन्तु शासक के अयोग्य होने पर सता पतन की ओर अग्रसर
होने लगती थी तथा उसके विरोधी इसका लाभ उठाते थे।

(3) अक्षम प्रशासनिक व्यवस्था (Inefficient Administration)–गुलाम – वंशीय शासन में प्रशासनिक
व्यवस्था उच्च श्रेणी की नहीं थी। बलबन के अतिरिक्त किसी अन्य शासक ने उसको संगठित एवं सुव्यवस्थित
करने का प्रयास भी नहीं किया । सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था के अभाव में किसी भी राज्य को अधिक समय
तक कायम नहीं रखा जा सकता।

(4) आन्तरिक विद्रोह (Internal Revolts)-गुलाम-शासकों की नीतियों के कारण उनके विरुद्ध
समय-समय पर विद्रोह होते रहते थे, जिनमें सत्ता को अत्यधिक हानि पहुंचती थी। गुलाम-शासकों का शासन
अमीरों तथा सरदारों के सहयोग से चलता था। कालान्तर में ये अमीर इतने शक्तिशाली हो गये कि उनसे
सुल्तान को सदैव भय बना रहता था। समय-समय पर ये सुल्तान के विरूद्र षड्यन्त्र करते थे तथा अपनी स्वतन्त्र
सत्ता स्थापित करने के लिए विद्रोह करते थे। इन अमीरों की शक्ति का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता
है कि ये अपनी इच्छा से सुल्तान को पदच्युत करा देते अथवा उसका वध करा देते थे। नये सुल्तान की
नियुक्ति में अमीर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। इस प्रकार अमीरों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण सुल्तान
का पद भी सुरक्षित नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में गुलाम वंश का पतन होना स्वाभाविक ही था।

(5) वैदेशिक आक्रमण (Foreign Invasions)-गुलाम शासकों को सदैव मंगोल आक्रमण का भय
बना रहता था। इल्तुतमिश के समय से ही मंगोलों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये थे। मंगोल अत्यन्त शक्तिशाली
थे, अत: सुल्तानों के लिए पश्चिमी सीमा को सुरक्षित रखना कठिन हो रहा था। इनका सामना करने के लिए
धन की आवश्यकता थी, जिसका गुलाम-शासकों के पास अभाव होता जा रहा था। यद्यपि बलबन ने मंगोलों
का सामना करने के लिए कुछ कदम उठाये थे, किन्तु उसके लिए भी उसे अपार धन खर्च करना पड़ा था।

(6) उत्तराधिकार के नियम का अभाव (Absence of Inheritance Rule)-गुलाम-शासन में उत्तराधिकार
का कोई निश्चित नियम नहीं था, इससे अत्यन्त असुविधा व षड्यन्त्रों का जन्म होता था। सुल्तान की मृत्यु
के पश्चात्, आवश्यक नहीं था कि उसका पुत्र ही शासक बने। अतः सुल्तान की मृत्यु
के
पश्चात् संघर्ष
पड्यन्त्र व हत्याएं प्रारम्भ हो जाती थीं, जिससे सल्तनत व वंश की शक्ति को चोट पहुंचती थी। उत्तराधिकार
के नियम का न होना, गुलाम-वंश के पतन का एक प्रमुख कारण था।

(7) गुलामों की महत्वाकांक्षाएं (Ambitions of Slaves) गुलाम-वंशीय शासनकाल में गुलाम प्रथा का
जोर था। प्रत्येक सुल्तान के अनेक गुलाम होते तथा अपने प्रिय गुलाम को सुल्तान उच्च पद प्रदान कर देते
थे। अतः अन्य गुलामों की भी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जाती थीं। कालान्तर में गुलाम इतने शक्तिशाली होने लगे
थे कि सुल्तान के विरुद्ध ही विद्रोह करने लगे थे। गुलामों की महत्वाकांक्षाओं के कारण दरबार राजनीति का
अखाड़ा बन गया था।

(8)गुलाम-शासकों की भूलें (Mistakes of Slave Rulers)  अनेक गुलाम-शासकों ने भयंकर गलतियांकी जिनका दुष्परिणाम गुलाम-शासन के पतन के रूप में हुआ। इल्तुतमिश ने ‘चालीस गुलामों के दल’ कासंगठन किया, किन्तु उनकी शक्तियों पर अंकुश न रहने के कारण वे आगामी शासकों के लिए सिर दर्द का कारण बन गये। रजिया ने भी गैर तुर्कों का दल बनाया, जिससे राजनीतिक समस्या और बढ़ी तथा उसका पतन हुआ। जैसा कि प्रो. हबीब व निजामी ने लिखा है, “वह गैर-तुर्को का एक प्रतिस्पर्दी दल बनाकर तुर्क सामन्तों की शक्ति को सन्तुलित करना चाहती थी और इसी कारण उसका विरोध होने लगा।” रजिया द्वारा याकूत

के प्रति असाधारण अनुराग रखना भी उसकी भूल थी। बलवन ने भी अनेक भूलें की। प्रो. हबीबुल्ला ने लिखा है
कि उसका सबसे बड़ा दोष यह था कि उसने भारतीय मुसलमानों के प्रभाव को राजनीति और शासन में स्वीकार
नहीं किया। बलबन ने अपने शासनकाल में सम्पूर्ण शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली थी, जिससे उसके
अनुगामियों की प्रशासनिक क्षमता का विकास न हो सका। अत: उसके उत्तराधिकारी निर्बल रहे।

(9) दुर्बल उत्तराधिकारी (Weak Successors)-किसी भी राजतन्त्र में उसकी उन्नति सुल्तान के ऊपर
निर्भर करती है। यदि सुल्तान योग्य है तो सल्तनत की भी उन्नति होती जाती है अन्यथा वह पतन की राह
पर अग्रसर हो जाता है। बलबन का उत्तराधिकारी कैकुबाद निर्बल एवं विलासी था। उसने अपना सम्पूर्ण समय
विलासिता में ही व्यतीत किया, अतः विरोधी ताकतों को उभरने का अवसर प्राप्त हो गया तथा गुलाम-वंश
इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से गुलाम-वंश का 1290 ई. में पतन हो गया।

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