हम यह भलीभाँति जानते हैं कि कार्य कोई भी क्यों न हो उसे पूर्ण करने की एक अपनी ही विधि या विधियाँ होती हैं। चूँकि शिक्षण भी एक कार्य है। अत: उसे सम्पन्न करने की भी विद्यार्थियों की आयु तथा वातावरणीय परिस्थितियों आदि को ध्यान में रखते हुए एक नहीं कई अलग-अलग विधियाँ भी हो सकती हैं।
कार्य करने की विधि के अन्तर्गत भी इन बातों पर पहले ही विचार कर लिया जाता है कि पहले क्या किया जायेगा और उसके पश्चात् क्या? इन सभी क्रियाओं का भी एक क्रम होता है और इसी क्रम को प्रक्रिया (Process) कहते हैं।
समूची शिक्षण प्रक्रिया के अग्रलिखित तीन सोपान हो सकते हैं-
1. शिक्षण पूर्व चिन्तन एवं तैयारी (Pre-thinking and preparation)
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती हैं:-
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उद्देश्य-निर्धारण (Deciding the objectives),
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विषयवस्तु का चयन (यदि पूर्व निर्धारित नहीं है तो) (Deciding the contents, if not pre-decided),
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शिक्षण-विधि, युक्तियों तथा तकनीकों का निश्चयन (Deciding the method, devices and techniques of teaching)।
2. वास्तविक शिक्षण (Actual teaching)
इसके अन्तर्गत जो क्रियायें आयेंगी, वे इस प्रकार होंगी:-
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कक्षा-व्यवस्था (Classroom management),
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पढ़ाने के साथ-साथ कक्षा-प्रेक्षण (Class observation),
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उपयुक्त युक्तियों तथा तकनीकों का प्रयोग (Using the appropriate devices and techniques),
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आवश्यकतानुसार उपयुक्त पुनर्बलनों (Reinforcements) का प्रयोग।
3. शिक्षणोपरान्त मूल्यांकन (Evaluation after teaching)
इसी को पाठोपरान्त मूल्यांकन अथवा पाठ की पुनरावृत्ति (Recapitulation) भी कह सकते हैं। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित क्रियायें आयेंगी:-
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उद्देश्य आधारित मूल्यांकन (Objective based teaching),
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विषयवस्तु आधारित अवबोध का मूल्यांकन (Evaluating the content based understanding),
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व्यवहारत परिवर्तन का परीक्षण (Testing the behavioural change)
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भविष्यगत सम्भावित परिवर्तनों पर विचार (Probable changes to be made in future)।