वन का तेजी से काटा जाना या लुप्त होना वन विनाश कहलाता है। मानव प्राचीन काल से ही प्राकृतिक संसाधनों की प्राप्ति हेतु वनों पर निर्भर रहा है। वनों से उसे लकड़ी, जलावन, पशुचारण, शिकार तथा दुर्लभ जड़ी-बूटियों की प्राप्ति होती है। औपनिवेशिक शासनकाल में भारत में तेजी से वनों की कटाई और लकड़ी का निर्यात आरंभ हुआ।
वन विनाश के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं
व्यावसायिक वानिकी का आरंभ-भारत में अंग्रेज शासक 19वीं शताब्दी के मध्य में यह बात अच्छी तरह समझ गए कि यदि व्यापारियों और स्थानीय निवासियों द्वारा इसी तरह पेड़ों को काटा जाता रहा तो वन शीघ्र ही समाप्त हो जाएंगे। वनों की अंधाधुंध कटाई के स्थान पर एक व्यवस्थित प्रणाली की आवश्यकता महसूस की। अतः ब्रिटिश सरकार ने डायट्रिच बैंडिस नामक एक जर्मन वन विशेषज्ञ को भारत का पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया गया।
बैंडिस ने 1864 ई0 में भारतीय वन सेवा की स्थापना की और 1865 ई० के भारतीय वन अधिनियम को सूत्रबद्ध करने में सहयोग दिया। इम्पीरियल फ़ॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना 1906 ई0 में देहरादून में हुई। यहाँ जिस पद्धति की शिक्षा दी जाती थी उसे वैज्ञानिक वानिकी’ (साइंटिफ़िक फ़ॉरेस्ट्री) कहा गया। आज पारिस्थितिकी विशेषज्ञों सहित ज्यादातर लोग मानते हैं कि यह पद्धति कतई वैज्ञानिक नहीं है।
वैज्ञानिक वानिकी के नाम पर विविध प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया। इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए। इसे बागान कहा जाता है। वन विभाग के अधिकारियों ने वनों का सर्वेक्षण किया, विभिन्न किस्म के पेड़ों वाले क्षेत्र की नाप-जोख की और वन-प्रबंधन के लिए योजनाएँ बनायीं। उन्होंने यह भी तय किया कि बागान का कितना क्षेत्र प्रतिवर्ष काटा जाएगा।
बागानी कृषि को प्रोत्साहन
यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया। औपनिवेशिक सरकार ने वनों को अपने कब्जे में लेकर उनके विशाल हिस्सों को बहुत ही सस्ती दरों पर यूरोपीय बागानी मालिकों को सौंप दिया। इन इलाकों की बाड़ाबंदी करके वनों को साफ कर दिया गया और चाय-कॉफी की खेती की जाने लगी। पश्चिमी बंगाल, असोम, केरल, कर्नाटक में बड़े पैमाने पर वनों को काटा गया।
कृषि भूमि का विस्तार
आधुनिक काल में भारत की जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की माँग में भी तीव्र वृद्धि हुई। जिसकी पूर्ति के लिए सीमावर्ती वनों को साफ करके कृषि क्षेत्रों का विस्तार किया गया।
औपनिवेशिक शासन काल में स्थिति और बिगड़ गई क्योंकि भारतीय कृषि को भारतीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ यूरोपीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी बाध्य होना पड़ा।