राजनीतिक कारण
रोमन साम्राज्य में सम्पूर्ण पश्चिमी यूरोप सम्मिलित था। रोमन सम्राटों ने इस क्षेत्र के अधिकांश भू-भाग को अपने अधिकार में करके बाहरी बर्बर आक्रमणों से इसकी रक्षा की थी और बहुत अंशों में शान्ति-व्यवस्था स्थापित की थी। परन्तु, पाँचवीं शताब्दी में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद यूरोप में सर्वत्र अराजकता, अशान्ति एवं अव्यवस्था फैल गई थी। आन्तरिक उपद्रव और बाह्याक्रमणों के कारण स्वतन्त्र किसानों का संकट बढ़ने लगा था। बर्बर जातियों के आक्रमणों ने उपद्रव और अशान्ति को बढ़ा दिया था। चारों ओर लूट-खसोट मची हुई थी। किसानों का कोई रक्षक नहीं था और वे बड़े कष्ट में थे। कोई भी अकेला व्यक्ति सुरक्षित न था। रोमन साम्राज्य के कुलीनवर्गीय सरदार अपने-अपने गाँवों में चले गए जहाँ उनके किले होते थे। इन लोगों ने किसानों पर और भी अत्याचार करना शुरू किया। वे अपने दुर्गों से छापा मारने के लिए निकल पडते थे। गाँव में वे किसानों को लूटते था तथा जमीन पर अपना अधिकार करने के लिए अपनी बराबरी के अन्य बड़े सामन्तों से लड़ते थे।
इस प्रकार, सर्वत्र अराजकता का बोलबाला था। किसान और जमींदार सभी इस असह्य स्थिति से ऊब गए थे। न तो किसानों का जान-माल सुरक्षित था और न सामन्तों की जमींदारी ही। इस स्थिति में दोनों एक-दूसरे की सहायता चाहते थे। इसीलिए सब लोग मिलकर ऐसे व्यक्ति की खोज में थे जो उनसे अधिक शक्ति सम्पन्न हो तथा उनके जान-माल की रक्षा कर सके। किसानों की दृष्टि में सामन्त ही ऐसा व्यक्ति दिखलाई पड़ा, क्योंकि उसके पास दुर्ग और हथियार थे। इसीलिए किसानों ने सामन्तों से एक समझौता करके अपनी जमीन उसके हाथ में सौंप दी और यह तय हुआ कि यदि सामन्त किसानों को लूटना बन्द कर दें और आन्तरिक तथा बाह्य शत्रुओं से उन्हें बचाएँ तो वे अपने खेत की पैदावार का कुछ हिस्सा उन्हें दिया करेंगे और दूसरी तरह की सेवाएँ भी करेंगे। इस तरह की व्यवस्था से किसान अब जमीन के स्वतन्त्र स्वामी नहीं रहे। वे कृषिदास (sert) बन गए। इस प्रक्रिया से अनेक छोटे-छोटे सामन्त बन गए। फिर, ये सामन्त भी अपने को अनारक्षित ही पाते थे, इसलिए इन्होंने अपने को किसी बड़े सामन्त की सेवा में समर्पित कर दिया।