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Pratham Singh in इतिहास
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सामन्तवाद के उदय के आर्थिक कारणों की विवचेना कीजिए।

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Deva yadav
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सामन्तवाद के उदय के आर्थिक कारण

थेरोमन साम्राज्य के उत्कर्ष के दिनों में दास-प्रथा बड़े पैमाने पर प्रचलित थी। दासों का शोषण बड़ी निर्ममता से होता था। इस कारण राज्य की पैदावार घटने लगी। अब समस्या थी उपज बढ़ाने की इसके तीन उपाय हो सकते थे। प्रथम, कोई नया आविष्कार करके अनाज की पैदावार में वृद्धि की जाए। द्वितीय, अनाज पैदा करने वालों की संख्या बढ़ाई जाए। इन दोनों उपायों को प्राप्त करना आसान नहीं था। रोमन साम्राज्य के उत्कर्ष के दिनों में कोई वैज्ञानिक आविष्कार नहीं हुआ था और जब साम्राज्य पतनोन्मुख होने लगा तो दासों की संख्या भी नहीं बढ़ाई जा सकती थी। अतएव अब एक तीसरा उपाय ही शेष रह गया था कि दासों को अधिक सुविधा देकर उन्हें प्रोत्साहन दिया जाए, ताकि वे मन लगाकर काम करें और पैदावार बढ़ा सके। इसलिए, दासत्व से मुक्ति दी जाने लगी और दास-प्रथा का उन्मूलन शुरू हुआ। उन्हें अब थोड़ी जमीन मिली जहाँ वे अपना घर बनाकर परिवार के साथ रह सकते थे। अब वे दास नहीं रह गए। उनकी स्थिति बदल गई और वे कृषिदास या कम्मी कहलाने लगे। कम्मी और दासों में कोई अन्तर नहीं था। वे भी दासों की तरह परतन्त्र थे, लेकिन उन्हें थोड़ी सुविधा अवश्य मिली। यह सुविधा उन्हें अपने मालिक की जमीन जोतने के बदले में मिलती थी। इन कृषिदासों कोअपने-अपने सामन्तों की सेवा भिन्न-भिन्न प्रकार से करनी पड़ती थी।

इस कारण भी सामन्तवाद की अनेक प्रवृत्तियों का विकास हुआ। इस प्रकार, सामन्तवाद की रचना किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा नहीं हुई,  बल्कि इसका उदय और विकार स्वाभाविक ढंग से हुआ। इसका निर्माण जानबूझकर नहीं किया गया था। यह एक प्रकार का पारस्परिक समझौता था जो युग की परिस्थितियों के अनुकूल था। इसका स्वरूप भी विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न था। इसकी उत्पत्ति तो इटली और जर्मनी में हुई थी, लेकिन इसका पूर्ण विकास फ्रांस में हुआ। यहाँ पर स्मरण रखना चाहिए कि सामन्तवाद प्राचीन रोमन और जर्मन प्रथाओं से प्रभावित था। यह मध्ययुगीन ईसाइयत का एक अंग हो गया। टॉमसन के शब्दों में, “सामन्तवाद में रोमन, ईसाइयत एवं जर्मन तत्त्व थे जो समकालीन जीवन-परिस्थितियों के अनुकूल थे।” प्राचीन रोमन संस्था पैट्रोसिनियम (Patrocinium) या संरक्षण में हम सामन्तवाद के बीज पाते हैं। इसके अनुसार, सम्पन्न और प्रभावशाली व्यक्ति अपने को अनुयायियों से घिरे पाते थे जिन्हें अनुयायीगण (clients) कहते थे। वे अपने आश्रयदाता के समर्थन और सहायता पर आश्रित थे।

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