मरुक्रमक
यह चट्टानों पर प्रारम्भ होने वाला अनुक्रमण है। चट्टानों पर जल तथा कार्बनिक पदार्थों की अत्यधिक कमी होती है। चट्टानों पर सर्वप्रथम स्थापित होने वाला प्राथमिक समुदाय क्रस्टोज लाइकेन का होता है। मरुक्रमक में एक समुदाय निश्चित अवधि के पश्चात् दूसरे समुदाय से विस्थापित हो जाता है। इस क्रम में निम्न अवस्थाएँ पायी जाती हैं –
- क्रस्टोज लाइकेन अवस्था – अनावृत चट्टानों पर सर्वप्रथम क्रस्टोज लाइकेन, जैसे राइजोकापन, लिकोनोरा, गैफिस आदि उगते हैं। लाइकेन से स्रावित अम्ल चट्टानों का अपक्षय करते हैं। लाइकेन की मृत्यु से कार्बनिक पदार्थ एकत्र होने लगते हैं।
- फोलियोज लाइकेन अवस्था – मृदा की पतली पर्त पर फोलियोज लाइकेन, जैसे- पामलिया, डर्मेटोकापन, फाइसिया, जैन्थोरिया आदि उगते हैं। इनकी मृत्यु होने से मृदा तथा कार्बनिक पदार्थों की मोटी पर्त बन जाती है। इनके फलस्वरूप आवास फोलियोज लाइकेन के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।
- मॉस अवस्था – चट्टानों पर मृदा तथा ह्युमस की मोटी पर्त आवास को मॉस के लिए उपयुक्त बना देती है। इस आवास में पॉलीट्राइकम, टॉटुला, फ्यूनेरिया, पोगोनेटम आदि सफलतापूर्वक उगते हैं। ब्रायोफाइट्स के निरन्तर अपघटन से चट्टानों पर कार्बनिक पदार्थों से युक्त मोटा स्तर बन जाता है। अब आवास शाकीय पौधों के लिए उपयुक्त बनने लगता है।
- शाक अवस्था – शाकीय पौधों के लिए आवास के उपयुक्त हो जाने से पोआ, फेस्टुका, एरिस्टिडा, ट्राइडेक्स, ऐजिरेटम आदि शाकीय पौधे उग आते हैं। चट्टानों का निरन्तर अपक्षय होता रहता है, ह्युमस की मात्रा बढ़ती रहती है। इसके फलस्वरूप झाड़ीदार पौधों का आक्रमण प्रारम्भ हो जाता है।
- झाड़ीय अवस्था – चट्टानों पर ह्यूमस युक्त मृदा की मोटी पर्त बन जाने से शाकीय पौधों के मध्य झाड़ीदार पौधे उगने लगते हैं, जैसे-कैपेरिस, कैसिया, यूरेना, क्रोटालेरिया आदि। झाड़ियों के उगने के कारण चट्टान अपक्षय के कारण मृदा में बदलने लगती है। वृक्षों का अतिक्रमण प्रारम्भ हो जाता है।
- चरम अवस्था – मरुस्थलीय वृक्ष आवास में वृद्धि करने लगते हैं। ये वृक्ष अपने आवास के साथ सन्तुलन बनाये रखते हैं। इसके फलस्वरूप वन क्षेत्रों का विकास हो जाता है। वृक्षों का समुदाय लगभग स्थायी समुदाय होता है।