प्रतिरक्षा तन्त्र तथा प्रतिरोधी क्षमता
सामान्य भाषा में किसी प्राणि के शरीर द्वारा किसी रोग विशेष के रोगजनक (pathogen) के प्रति रोग उत्पन्न करने में प्रतिरोध करने की शक्ति को प्रतिरोध क्षमता या प्रतिरक्षा या असंक्राम्यता (immunity) कहा जाता है। जिस प्राणि में यह शक्ति होती है, वह रोधक्षम या प्रतिरक्षित या असंक्राम्य (immune) कहलाता है; जैसे- जिन व्यक्तियों में एक बार चेचक का संक्रमण हो जाता है, उनमें चेचक का संक्रमण पुनः जीवन भर नहीं होता।
इसका कारण यह है कि एक बार संक्रमित मनुष्य के शरीर के रुधिर में चेचक के विषाणु के प्रति प्रतिरोध क्षमता या असंक्राम्यता उत्पन्न करने की शक्ति रहती है, जो असंक्रमित मनुष्य के रुधिर में नहीं होती। एक बार संक्रमित मनुष्य के रुधिर में कुछ ऐसे पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं; जो उसी प्रकार के विषाणु के शरीर पर पुनः संक्रमण की क्रिया को रोकते हैं। यही शक्ति शरीर में रोग न होने देने की क्षमता रखती है अथवा रोग-प्रतिरोध करती है। अत: यह रोगरोधक क्षमता ही प्रतिरक्षा, असंक्राम्यता अथवा प्रतिरोध क्षमता (immunity) कहलाती है।
रूस के वैज्ञानिक एली मैचनीकॉफ (Elie Metchnikoff, 1884) ने सर्वप्रथम भक्षाणुओं द्वारा शरीर में आये सूक्ष्मजीवों की प्रतिरोधक क्षमता या प्रतिरक्षी क्रियाओं का वर्णन ‘फैगोसाइटोसिस (phagocytosis) या कोशिका भक्षण के नाम से प्रस्तुत किया। बाद में मैचनीकॉफ को 1908 ई० में नोबेल पुरस्कार (Noble prize) से भी सम्मानित किया गया।
यद्यपि अनेक बार लुई पाश्चर (Louis Pasteur) को उनके सूक्ष्म जीवों के कार्य के लिए प्रतिरक्षा विज्ञान के जनक’ (father of immunology) के रूप में सम्मानित किया जाता है। यद्यपि अन्य लोग एमिल वॉन बैहरिंग (Emil Von Behring) को ‘फादर ऑफ इम्यूनोलॉजी’ कहते हैं। ऐबामोफ (Abamoff, 1970) के अनुसार, प्रतिरोध क्षमता शरीर की वह क्षमता है, जो अपने से बाहर के पदार्थों को नष्ट कर देती है अथवा बाहर निष्कासित करके रोगजनकों से अपनी सुरक्षा करने में सक्षम होती है।