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Pooja in Difference
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क्या आप बता सकते हैं कि मोह और प्रेम में क्या अन्तर है?

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Mohit Yadav
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मोह और प्रेम में बहुत बारीक अंतर है, लेकिन जब उसके नतीजों पर गौर करें तो यह अंतर जमीन आसमान का है। मोह बांधता है, प्रेम आजाद करता है। स्वतंत्र कर देता है।

प्रेम शाश्वत गुण है, जीवन का आधार है, और कभी कम नहीं होता, बढ़ता ही जाता है। जबकि मोह स्वार्थ से पैदा होता है, और समय के साथ कम या खत्म भी हो जाता है।

प्रेम ऊपर उठाता है पर मोह नीचे गिराता है। अर्थात प्रेम में इंसान महान हो जाता है और मोह में पड़ कर गिर जाता है।

प्रेम अटूट है कभी भंग नहीं होता, जबकि मोह भंग हो जाता है।

मोह में पाने की इच्छा होती है, प्रेम में केवल समर्पण का भाव होता है।

मोह दुख का कारण होता है। प्रेम सुख का कारण होता है। मोह के आंसू शिकवा शिकायतें और दुख लाते हैं, जबकि प्रेम के आंसू हृदय को निर्मल करने में सहायक होते हैं।

मोह कहता है मुझे यह नहीं मिला, मुझे वह नहीं मिला, मुझे उस से यह उम्मीद थी,वह पूरी नहीं हुई। प्रेम कहता है, अरे! मैं उसके लिए कुछ नहीं कर पाता। मैं उसे कैसे खुश रखूं? यानी मैं का तो कोई स्थान ही नहीं, वह ही वह है।

प्रेम खुशियों का स्त्रोत है।मोह दुखों का कारण है।

प्रेम जीवन की आशा को बढ़ाता है, जबकि मोह जीवन में जंजाल ही पैदा करता है।

प्रेम में एक मग्नता होती है, प्रीतम की यादों में रहना उसे बार-बार निहारना.. प्रेम की मगनता हमें दुनिया से विरक्त कर देती है।सिर्फ प्रीतम ही रह जाता है और प्रेमी। फिर दुनिया निंदा करें, घृणा करें, कुछ भी करें इस और ध्यान ही नहीं जाता। जिसके मन को प्रेम का असीम सुख मिल जाता है, उसे फिर मोह के झंझट अच्छे नहीं लगते।
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Mohit Yadav
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अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने विरोध में खड़े सभी सगे-संबंधियों को देखकर हथियार डाल दिए थे। उसके पीछे केवल उसका मोह था, जो उसे युद्ध नहीं करने दे रहा था। असल में हमें संसार में बांधे रखने काम मोह करता है क्योंकि यह मन का एक विकार है। जब प्रेम गिने-चुने लोगों से होता है, हद में होता है, सीमित होता है, तब वह मोह कहलाता है। इसके संस्कार चित्त में इकट्ठा होते रहते है, जिससे इसकी जड़ें पक्की हो जाती हैं और कई बार चाहकर भी हम मोह को नहीं छोड़ पाते।

हम मोह को ही प्रेम मान लेते हैं, जैसे युवक-युवती आपस में आसक्त होकर प्रेम करते हैं और उसे प्रेम कहते हैं, जबकि वह प्रेम नहीं, मोह है। मां-बाप जब केवल अपने बच्चे को प्रेम करते हैं तो वह भी मोह कहलाता है। मोह का मतलब होता है आसक्ति, जो गिने-चुने उन लोगों या चीजों से होती है जिन्हें हम अपना बनाना चाहते हैं, जिनके पास हम ज्यादा-से-ज्यादा समय गुजारना चाहते हैं। मोह वहां होता है जहां हमें सुख मिलने की उम्मीद हो या सुख मिलता हो। यहां मैं और मेरे की भावना प्रबल रहती है। एक होता है लौकिक प्रेम यानी सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है अलौकिक प्रेम यानी ईश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और ईश्वरीय प्रेम, प्रेम कहलाता है। इसी मोह की वजह से व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता रहता है। मोह की वजह से द्वेष पैदा होता है। मोह जन्म-मरण का कारण है क्योंकि इसके संस्कार बनते हैं, लेकिन ईश्वरीय प्रेम के संस्कार नहीं बनते बल्कि वह तो चित्त में पड़े संस्कारों के नाश के लिए होता है। प्रेम का अर्थ है मन में सबके लिए एक जैसा भाव। जो सामने आए, उसके लिए भी प्रेम, जिसका ख्याल भीतर आए, उसके लिए भी प्रेम। परमात्मा की बनाई हर वस्तु से एक जैसा प्रेम। जैसे सूर्य सबके लिए एक जैसा प्रकाश देता है, वह भेद नहीं करता। जैसे हवा भेद नहीं करती, नदी भेद नहीं करती, ऐसे ही हम भी भेद न करें। मेरा-तेरा छोड़कर सबके साथ सम भाव में आ जाएं। अपने मोह को बढ़ाते जाओ। इतना बढ़ाओ कि सबके लिए एक जैसा भाव भीतर से आने लगे। फिर वह कब प्रेम में बदल जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। यही अध्यात्म का गूढ़ रहस्य है।

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