सजीवता के लक्षण (Characteristics of livingness):
जिसमें जीवन होता है वे जीव सजीव होते हैं। जीवों में कुछ स्पष्ट लक्षण मिलते हैं जैसे वृद्धि, जनन, पर्यावरण के प्रति संवेदना, उपापचय क्रियायें तथा स्वयं को सुसंगठित करने व प्रतिक्रिया करने की क्षमता होती है। निर्जीवों में इस क्षमता व लक्षणों का अभाव होता है। सजीवों में मुख्य रूप से निम्न लक्षण पाये जाते हैं।
(i) गति (Movement):
लगभग सभी जीवधारी गति दिखाते हैं। प्राणी एक स्थान से अन्य स्थान पर गमन करते हैं। परन्तु कुछ एककोशिकीय पौधों को छोड़कर अन्य पौधे इस प्रकार की गति नहीं दर्शाते हैं क्योंकि पौधे भूमि में स्थिर रहते हैं। फिर भी पौधे अपने ही स्थान पर रहते हुये, गुरुत्व (gravity), प्रकाश, नमी इत्यादि प्रभावों के कारण मुड़ने की क्रिया दर्शाते हैं, जैसे पर्यों व पुष्पों का खुलना व बन्द होना, इन्हें भी गति कहा जाता है।
(ii) वृद्धि (Growth):
जीवधारियों की आकृति, आयतन और शुष्क भार के अपरिवर्तनीय (irreversible) बढ़त को वृद्धि कहते हैं। यह उपापचयी क्रियाओं के परिणामस्वरूप होती है। पौधों में यह वृद्धि जीवनपर्यन्त कोशिका विभाजन के कारण होती रहती है जबकि प्राणियों में, यह वृद्धि कुछ आयु तक होती है। कोशिका विभाजन विशिष्ट ऊतकों में होता है।
कभी-कभी जीव के भार में वृद्धि होने को भी वृद्धि समझा जाता है। यदि भार को वृद्धि मानें तो निर्जीवों के भार में भी वृद्धि होती है, जैसे-पर्वत, रेत के टीले भी वृद्धि करते हैं। किन्तु निर्जीवों में इस प्रकार की वृद्धि उनकी सतह पर पदार्थों के एकत्र होने के कारण होती है अर्थात् बाह्य कारकों के कारण होती है। जीवों में यह वृद्धि अन्दर की ओर से होती है।
(iii) आकार व आकृति (Size and Shape):
सजीवों में अपनीअपनी किस्मों तथा जातियों के अनुसार अपना एक विशिष्ट आकार व आकृति होती है। इनके आकार व आकृति में सदैव निश्चितता होती है।
(iv) कोशिकीय संरचना (Cellular structure):
सभी जीवों का शरीर एक या एक से अधिक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। कोशिका जीवों की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक (structural and functional urmit) इकाई है।
(v) जीवदव्य (Protoplasm):
सजीवों में जीवद्रव्य (protoplasm) पाया जाता है। यह जीवन का भौतिक आधार है जिसमें जैविक क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। जीवद्रव्य विभिन्न रासायनिक पदार्थों का सम्मिश्र तथा जटिल व विस्कासी तरल होता है।
(vi) उपापचय (Metabolism):
सजीवों के शरीर में होने वाली जैव-रासायनिक क्रियाओं को उपापचय (Metabolism) कहते हैं। उपापचयी क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं-उपचय (Anabolism) तथा अपचयी (Catabolism)। उपचय क्रियाओं में सरल घटकों के संयोजन। फलस्वरूप जटिल घटकों का निर्माण होता है। उदाहरण-प्रकाश-संश्लेषण क्रिया। अपचयी क्रिया विघटनात्मक क्रिया होती है, इसमें जटिल घटकों का अपघटन होकर सरल घटकों का निर्माण होता है, उदाहरण-श्वसन क्रिया। यही कारण है कि सजीव कोशिका को लघुरासायनिक उद्योगशाला (Miniature chemical factory) की उपमा दी जाती है।
(vii) श्वसन (Respiration):
श्वसन जीवों का मुख्य लक्षण है। इस क्रिया में जीव वायुमण्डल से ऑक्सीजन लेते हैं तथा कार्बनडाइऑक्साइड बाहर निकालते हैं। इस क्रिया में कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटीन का ऑक्सीकरण होता है व ऊर्जा मुक्त होती है। इस मुक्त ऊर्जा से ही जीवधारियों की समस्त जैविक-क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं।
(viii) प्रजनन (Reproduction):
सभी जीव जनन की क्रिया द्वारा अपने जैसे जीव उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं।
(ix) पोषण (Nutrition):
जीवधारियों की वृद्धि एवं विकास तथा जीवद्रव्य निर्माण हेतु भोजन अर्थात् ऊर्जा की आवश्यकता होती है। पेड़-पौधे इस ऊर्जा को सूर्य के प्रकाश से प्राप्त कर प्रकाश-संश्लेषण द्वारा। भोजन के रूप में संचित करते हैं जबकि प्राणी इस ऊर्जा के लिए पेड़पौधों पर आश्रित रहते हैं।
(x) संवेदनशीलता तथा अनुकूलन (Sensitivity and adaptability):
जीव जहाँ पर भी रहते हैं अपने वातावरण में निरन्तर होने वाले परिवर्तनों का अनुभव करते हैं। इस गुण को संवेदनशीलता (sensitivity) कहते हैं। होने वाले इन परिवर्तनों के अनुसार जीव अपनी संरचना और क्रियाओं में भी परिवर्तन करते हैं, इसे अनुकूलन (adaptability) कहते हैं।
(xi) उत्सर्जन (Excretion):
सभी जीवों में उपापचयी क्रियाओं के कारण अनावश्यक एवं हानिकारक पदार्थ बनते हैं। जीवधारी इन। पदार्थों को निरन्तर अपने शरीर से बाहर निकालते रहते हैं।
(xii) साम्यावस्था (Homeostasis) :
सभी जीवों में परिवर्तन के प्रति प्रतिरोध करने एवं सन्तुलित अवस्था में रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसे साम्यावस्था कहते हैं।
(xiii) सजीवों में आनुवंशिक पदार्थ पाये जाते हैं जो लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित करते हैं।
(xiv) जीवनचक्र (Life-cycle):
सभी जीव जन्म, वृद्धि, जनन, वृद्धावस्था एवं मृत्यु के रूप में विविध क्रियाएँ प्रदर्शित करते हैं, जिसे जीवनचक्र कहते हैं।