हिन्दी गद्य के विकास में भारतेन्दु युग का महत्त्व
भारतेन्दु से पूर्व हिन्दी गद्य का कोई निश्चित स्वरूप नहीं था। लेखकों की रचनाओं में या तो उर्दू-फारसी के शब्दों की प्रचुरता थी या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों की। यह भाषा जनता की भाषा नहीं थी। भारतेन्दु ने अपने गद्य में न तो अधिक संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग किया और न ही अधिक अरबीफारसी के शब्दों का, वरन् उन्होंने अपनी रचनाओं में सामान्य बोलचाल के शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों को स्थान देकर हिन्दी गद्य को जीवन्त बनाया। इसी कारण जन-सामान्य ने इनकी रचनाओं को सहज भाव से स्वीकार कर लिया। इन्होंने हिन्दी में नाटक, उपन्यास, निबन्ध इत्यादि गद्य की विधाओं का सूत्रपात किया तथा तत्कालीन लेखकों को विविध विषयों की रचना करने को प्रेरित किया।