यह बात बिल्कुल सत्य है। आस-पड़ोस मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है। किसी मुसीबत में पड़ोसी ही काम आते हैं। परंतु दुर्भाग्य से अब पड़ोस में आना-जाना नहीं रहा। नर-नारी दोनों कमाऊ होने लगे हैं। इस कारण उन्हें इतना समय नहीं मिलता कि अपने निजी काम समेट सकें। छुट्टी का दिन भी घर-बार सँभालने में बीत जाता है। इस कारण पड़ोस कल्चर प्रायः समाप्त हो गई है। बड़े तो बड़े, बच्चे भी पैदा होते ही कैरियर की दौड़ में इतने अंधे होने लगे हैं कि उन्हें अपनी छोड़कर अन्य किसी की खबर नहीं है। यह शहरी जीवन का सबसे बड़ा हादसा है। इस कारण मनुष्य हृदय की उदारता, विशालता, हँसी-ठिठौली, ठहाके और उल्लास भूल गया है। वह स्वयं में बिल्कुल अकेला, उदास और बेचारा हो गया है।