चर्च और राज्य के मध्य सम्बन्ध
2. प्रारम्भ में मधुर सम्बन्ध
प्रारम्भ में चर्च और राज्य के मध्य मधुर सम्बन्ध थे। दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते हुए लोकहितकारी कार्यों से ही जुड़े रहते थे। इनमें किसी प्रकार का पारस्परिक संघर्ष नहीं था।
2. आदर्श समन्वय पर आधारित सम्बन्ध
प्रारम्भ में चर्च और राज्य में अटूट समन्वय था। कभी-कभी कुछ सन्दर्भो में चर्च की उच्चता और सत्ता दिखाई पड़ती थी, जबकि सामान्य रूप से राज्य सर्वोच्च शक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता था। पोप की आज्ञाओं और निर्देशों का पालन करने में राजा धर्मपरायण होकर गौरव का ही अनुभव करते थे। पोप भी राज्य की आज्ञाओं को मानव-समाज के हित के लिए अनिवार्य मानकर उनका सम्मान करते थे। इस अटूट समन्वय की आदर्श समानता को दृष्टिगत रखते हुए एक विद्वान् ने लिखा है कि “यूरोप में चर्च और राज्य पति-पत्नी की भाँति आदर्श दम्पती थे तथा कभी चर्च पति, राज्य पत्नी और कभी राज्य पति तो चर्च पत्नी दिखलाई पड़ता था। दोनों में चोली-दामन का सम्बन्ध था”
3. चर्च और राज्य के वैमनस्यपूर्ण सम्बन्ध
बाद में चर्च और राज्य के सम्बन्ध कटु और वैमनस्यपूर्ण होते चले गए। पोप स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानने लगा था और राजा स्वयं को ईश्वर का अंग मानकर तथा उसके द्वारा भेजा गया अग्रदूत मानकर अपने आपको राज्य का सर्वोच्च स्वामी समझता था। उच्चता की भावना को लेकर चर्च और राज्य में वैमनस्य प्रारम्भ हो गया और यूरोप के राजा पोप के महत्त्व को कम करने में सलंग्न हो गए थे; परन्तु व्यवहार में चर्च की ही धार्मिक सत्ता का जनमानस पर छायी रही।
चर्च उस समय धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में खुलकर हस्तक्षेप करता था। रोम के चर्च में पोप सर्वशक्तिमान था। चर्च की अपनी सरकार, अपना कानून, अपने न्यायालय एवं अपनी पृथक् धार्मिक व्यवस्था थी। वह कैथोलिक राजाओं के आन्तरिक मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकता था। जनता उस समय चर्च एवं राज्य के दोहरे प्रशासन के बीच पिस रही थी। चर्च चौदहवीं शताब्दी तक राज्य पर छाया रहा। उस समय के शासक राज्य को चर्च के नियन्त्रण में मानते थे। चर्च उनकी शक्ति के विस्तार में बाधक बना हुआ था। जैसे ही चर्च के पादरियों में फूट पड़ी, पोप के पाखण्डों के विरुद्ध यूरोप में आवाज उठने लगी। राज्य ने पोप की सत्ता को नकार दिया। सम्पूर्ण यूरोप पोप की सत्ता के विरुद्ध एकजुट हो गया। यूरोप में धर्मयुद्ध आरम्भ हो गए, जिनमें अन्तिम विजय राज्य को प्राप्त हुई। इन युद्धों के फलस्वरूप पोप की सत्ता केवल रोम के वैटिकन सिटी तक ही सीमित हो गई। राजा के दैवी अधिकार सिद्धान्त ने राजा को असीमित अधिकार देकर पोप की सत्ता को कम कर दिया। अतः यूरोप में मध्य युग से निरंकुश राजाओं का बोलबाला हो गया।