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Pratham Singh in इतिहास
भारत के मध्य युग और विश्व के मध्य युग में अंतर बताइये

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Deva yadav

भारत के मध्य युग और विश्व के मध्य युग में अंतर

मध्यकाल की बात करें तो वास्तव में यह काल युद्ध और रक्त का ही काल रहा है । इसकी उपलब्धि यही रही कि इसने मानव को इतना क्लांत कर दिया कि उसे शांति के महत्व को समझना फिर से शुरू कर दिया और उसे दिमाग में विज्ञान और दर्शन फिर से पैदा होने लगे लेकिन इंसान के अंदर का जो जानवर मध्यकाल में जागा था वो अभी तक मध्यकाल के समाप्त हुए लगभग 200–300 साल हुए पर ठीक से सोया नहीं है । आज भी एक बड़ी आबादी उसी मध्यकालीन मानसिकता में जी रही है । सामने वाला मुझसे नीची लिंग का है तो उसकी हिम्मत कैसे हुई मेरे बनाये गए मेरे फायदे के नियम तोड़ने की ? सामने वाला मुझसे कम उम्र का है, मुझसे नीची सामाजिक प्रस्थिति का है या जो भी हो या रंग जैसी धारणाएं । वास्तव में “नीची” जैसी अवधारणा के अवधारण का तमगा इसी युग के नाम है । तथा नीचे शब्द का अर्थ निकालने का एक ही मापदण्ड था “पशुता का प्रयोग” कौन कितनी अधिक मात्रा में पशुता कर सकता है ? जो जितना बड़ा पशु वह उतना ही महान ।

फिलहाल इन चीजों को छोड़कर आगे बढ़ते हैं तो पाते हैं कि भारत के संदर्भ में मध्यकाल थोड़ा देर से शुरू होता है और देर तक चलता भी है । कारण है कि मध्यकाल की दस्तक भारत में भी 700 ईस्वी के आसपास होने लगती है लेकिन भारतीय इतिहास कहता है 1200 के आसपास शुरू हुआ ।

यदि हम विश्वपटल पर देखते हैं तो वहां भी मध्यकाल यहीं से शुरू होता है जब शासन की सीमाओं में वृद्धि के लिए सम्प्रदाय को हथियार बनाया गया और ईश्वर की आस्था जैसी पवित्र चीज को अफ़ीम बनाकर लोगों के कत्ल औ गारद के लिए उपयोग किया जाने लगा ये बात भारत आते आते 1200 के आस पास पहुंची ठीक वैसे ही जैसे कुस्तुनतुनया का पतन हुआ सारे प्राचीन ज्ञान विज्ञान के स्रोत जला दिए गए और दार्शनिकों को कत्ल किया गया वैसे भी भारत में भी 1200 ईस्वी के बाद शुरू होता है । राजाओ के युद्धों से कभी न प्रभावित होने वाली भारतीय जनता को अब हर हार और जीत का खमियाज़ा भुगतना पड़ा ।

अंतर यह था जहां यूरोप में 2 पक्ष जो लड़ रहे थे उनमें एक ईसाई था दूसरा इस्लामिक वे सम्प्रदाय के नाम पर लड़ रहे थे पर भारत के लोग मजहब के नाम पर नहीं अपितु राजा के नाम पर लड़ रहे थे लेकिन जब भारतीय पक्ष हारता तो उसका भी संहार मजहब के नाम पर ही होता था ।

यूरोप के दोनों पक्ष युद्ध की पशुता में दक्ष थे पर भारत में एक पक्ष आदर्शों पर लड़ता था जबकि आक्रमण करने वाला पक्ष उसी पशुता वाली प्रणाली पर ।

जो सबसे बड़ा अंतर था दोनों जगहों में वह यह था कि यूरोप में जहां जीतने वाले को श्रेष्ठ मानकर उसकी संस्कृति अपनाते चले गए लोग और अपनी विसारते पर भारत में इसका एकदम उल्टा हुआ भारत ने आक्रांताओं को अपने बेहतर नहीं समझ खुद को उनसे अलग रखा और अपनी संस्कृति को सँजोये रखा ।

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