कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन माँहि’ का भाव यह है कि मनुष्य की स्थिति मृग के समान होती है। जिस प्रकार कस्तूरी मृग की नाभि में होती है, परंतु उसकी महक के आकर्षण में खोया मृग यह नहीं जान पाता है कि आखिर वह सुगंधित पदार्थ (कस्तूरी) है कहाँ? वह दर-दर, जंगल-जंगल इसे खोजता फिरता है पर निराशा ही उसके हाथ लगती है। वह आजीवन इस कस्तूरी को खोजता-खोजता इस दुनिया से चला जाता है। कुछ ऐसा ही मनुष्य के साथ है जो ईश्वर को अपने भीतर न खोजकर जगह-जगह खोजता फिरता है।