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Deva yadav
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जीवन परिचय

डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद जी का जन्‍म सन् 1884 ई. में बिहार राज्‍य के छपरा जिले के जीरादेई नामक ग्राम में हुआ था। ये बड़े मेधावी छात्र थे। राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआँगाँव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया इसलिये वे वहाँ से बिहार के जिला सारण (अब सीवान) के एक गाँव जीरादेई में जा बसे। इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी - हथुआ। चूँकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। पच्चीस-तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पाँच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूँकि कोई संतान नहीं थी इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भाँति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही माँ को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव माँ भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियाँ और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।

प्रारंभिक जीवन

राजेन्द्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पाँच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू किया। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेंद्र बाबू का विवाह उस समय की परिपाटी के अनुसार बाल्य काल में ही, लगभग 13 वर्ष की उम्र में, राजवंशी देवी से हो गया। विवाह के बाद भी उन्होंने पटना की टी० के० घोष अकादमी से अपनी पढाई जारी रखी। उनका वैवाहिक जीवन बहुत सुखी रहा और उससे उनके अध्ययन अथवा अन्य कार्यों में कोई रुकावट नहीं पड़ी।लेकिन वे जल्द ही जिला स्कूल छपरा चले गये और वहीं से 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा दी। उस प्रवेश परीक्षा में उन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था।. सन् 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि परास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
इन्‍होंने 'कलकत्ता विश्‍वविद्यालय' से एम.ए. ओर एम.एल.(तत्‍कालीन कानून 'लॉ' की डिग्री) की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। परिश्रमी और कुशाग्र बुुद्धि छात्र होने के कारण ये अपनी कक्षाओं में सदैव प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते रहे। अपना अध्‍ययन पूरा करने के पश्‍चात् इन्‍होंने मुजफ्फरपुर के एक कॉलेज में अध्‍यापन कार्य किया। सन् 1911 ई. में वकालत आरम्‍भ की और सन् 1920 ई. तक कलकत्ता और पटना उच्‍च न्‍यायालय में वकालत का कार्य किया।सन 1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें "भारत रत्‍न" की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। यह उस पुत्र के लिये कृतज्ञता का प्रतीक था जिसने अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर आधी शताब्दी तक अपनी मातृभूमि की सेवा की थी।

भाषा-शैली

भाषा- डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद सदेैव सरल और सुबोध भाषा के पक्षपाती रहे। इनकी भाषा व्‍यावहारिक है, इसलिए इसमें संस्‍कृत, उर्दू, अंग्रेजी, बिहारी आदि भाषाओं के शब्‍दों का समुचित प्रयोग हुआ है। इन्‍होंने आवश्‍यकतानुसार ग्रामीण कहावतों और ग्रामीण शब्‍दों के भी प्रयोग किए है। इनकी भाषा में कहीं भी बनावटीपन की गन्‍ध नहीं आती। इन्‍हें आलंकारिक भाषा के प्रति भी मोह नहीं था। इस प्रकार इनकी भाषा सरल, सुबोध, स्‍वाभाविक और व्‍यवहारिक है।

शैली- डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद की शैली के दो रूप प्राप्‍त होते है

  • साहि‍त्यिक 
  • भाषण 

उक्‍त शैलियों अतिरि क्‍त डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद जी की रचनाओं में यत्र-तत्र 

  • विवेचनात्‍मक 
  • भावात्‍मक 

आत्‍मकथात्‍मक शैली के भी दर्शन होते हैं।

हिन्‍दी-साहित्‍य में स्‍थान

डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद 'सादा जीवन और उच्‍च विचार' के प्रतीक थे । यही बात इनके साहित्‍य में भी दृृष्टिगोचर होती है। अपने चिारों की सरल और सुबोध अभिव्‍यक्ति के लिए ये सदैव याद किए जाऍंगे। हिन्‍दी के आत्‍मकथा-साहित्‍य के अन्‍तर्गत इनकी सुप्रसिद्ध पुस्‍तक 'मेरी आत्‍मकथा' का विशेष स्‍थान हैं।

रचनाएँ

राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा (१९४६) के अतिरिक्त कई पुस्तकें भी लिखी जिनमें बापू के कदमों में बाबू (१९५४), इण्डिया डिवाइडेड (१९४६), सत्याग्रह ऐट चम्पारण (१९२२), गान्धीजी की देन, भारतीय संस्कृति व खादी का अर्थशास्त्र इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

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