बाल विकास के क्षेत्र को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-
1. शारीरिक विकास (Physical development)
बाल विकास का सम्बन्ध बालक के शारीरिक विकास से होता है। इसके अन्तर्गत बालक के भ्रूणावस्था से लेकर बाल्यावस्था वक्र के विकास का अध्ययन किया जाता है। यदि बालक का शारीरिक विकास उचित क्रम में नहीं हो रहा है तो उसके कारणों को ढूँढ़ा जाता है तथा उनका निराकरण किया जाता है। अतः बाल विकास का प्रमुख क्षेत्र बालकों के शारीरिक विकास का अध्ययन करना है।
2. मानसिक विकास (Mental development)
बालकों के मानसिक विकास का अध्ययन करना भी बाल विकास के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। इसके अन्तर्गत बालकों की क्रियाओं एवं संवेगों के आधार पर बालकों के मानसिक विकास का अध्ययन किया जाता है। प्रायः बालक में अनेक प्रकार के परिवर्तन होने लगते हैं; जो कि उसके मानसिक विकास को प्रकट करते हैं; जैसे-वस्तुओं को पकड़ना, विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ करना तथा नवीन शब्द बोलना आदि।
3. संवेगात्मक विकास (Emotinal development)
बालकों के विभिन्न संवेगों सम्बन्धी गतिविधियों का अध्ययन भी बाल विकास की परिधि में आता है। बाल विकास के अन्तर्गत बालकों के विभिन्न संवेगों का अध्ययन किया जाता है। यदि बालक अपनी आयु के अनुसार संवेगों को प्रकट नहीं कर रहा है तो उसका संवेगात्मक विकास उचित रूप में नहीं हो। यदि वह आयु वर्ग के अनुसार संवेगों को प्रकट कर रहा है तो उसका संवेगात्मक विकास सन्तुलित है। अत: इसमें बालकों के विभिन्न संवेग, उत्तेजना, पीड़ा, आनन्द, क्रोध, परेशानी, भय, प्रेम एवं प्रसन्नता आदि का भी अध्ययन किया जाता है।
4. सामाजिक विकास (Social development)
बालकों का सामाजिक विकास भी बाल विकास के क्षेत्र में आता है। बाल विकास के अन्तर्गत बालों के सामाजिक व्यवहार का अध्ययन प्रमुख रूप से किया जाता है। सामाजिक व्यवहार के अन्तर्गत परिवार के सदस्यों को पहचानना, उनके प्रति क्रोध एवं प्रेम की प्रतिक्रिया व्यक्त करना, परिचितों से प्रेम तथा अन्य से भयभीत होना एवं बड़े अन्य व्यक्तियों के कार्यों में सहायता देना आदि को सम्मिलित किया गया है। बालक के आयु वर्ग के अनुसार किया गया उचित व्यवहार सन्तुलित विकास को प्रदर्शित करता है तथा इसके विपरीत की स्थिति बालक के सन्तुलित विकास की सचक नहीं होती है।
5. चारित्रिक विकास (Character development)
बालकों का चारित्रिक विकास भी बाल विकास के क्षेत्र में आता है। इसके अन्तर्गत बालकों के शारीरिक अंगों के प्रयोग, सामान्य नियमों के ज्ञान, अहंभाव की प्रबलता, आज्ञा पालन की प्रबलता, नैतिकता का उदय एवं कार्यफल के प्रति चेतनता की भावना आदि को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार बालकों का आयु वर्ग के अनुसार चरित्रगत गुणों का विकास होना बालकों के सन्तुलित चारित्रिक विकास का द्योतक माना जाता है। इसके विपरीत स्थिति को उचित नहीं माना जा सकता।