नदी जब अपने मुहाने का निर्माण करती है तो उसका जल भू-सतह पर फैल जाता है। ज्वार-भाटा के समय सागरीय जलं नदी के जल को पीछे की ओर धकेल देता है। इस क्षेत्र को ज्वारनदमुख कहते हैं। इस प्रकार की नदियाँ डेल्टाओं का निर्माण नहीं करती हैं; अत: इस क्षेत्र में नदी के मृदुल जल तथा सागर के खारे जल का सम्मिश्रण होता रहता है। ज्वारनदमुख के उथला होने के कारण सूर्य भी अधःस्थल तक पहुँचता है। ज्वार-भाटा के समय इस क्षेत्र में जल का उतार-चढ़ाव होता रहता है, फलस्वरूप यहाँ पोषक तत्त्वों का मिश्रण हो जाता है। अतः इस क्षेत्र में पौधों का विकास तीव्रता से होता है, जिनसे जीवों को भोजन की प्राप्ति होती रहती है तथा यहाँ केकड़े, सीपियाँ, झींगे, मछलियाँ, जलचर एवं जलीय वनस्पति पर्याप्त मात्रा में विकसित होती हैं। कुछ विशिष्ट प्रकार की मछलियों के लिए ज्वारनदमुख सबसे सुरक्षित प्रजनन क्षेत्र होते हैं, क्योंकि जल की कम लवणता महासागरीय परभक्षियों के लिए बाधा उपस्थित करती है।