ऋतु-अपक्षय
भूपटल पर दो प्रकार की शक्तियाँ कार्यरत हैं—आन्तरिक एवं बाह्य। यही शक्तियाँ भूपृष्ठ के भौतिक स्वरूप में लगातार परिवर्तन करती रहती हैं। पृथ्वी की आन्तरिक शक्तियों में ज्वालामुखी तथा भूकम्प मुख्य हैं तथा बाह्य शक्तियों में धरातल को अपरदित करने वाले कारक-जल, वायु, सूर्यातप, हिमानी, सागरीय तरंगें आदि हैं। आन्तरिक शक्तियाँ धरातल को असमतल करने में लगी रहती हैं, जबकि बाह्य शक्तियाँ इस ऊबड़-खाबड़ धरातल को समतल करने में अपना योगदान देती हैं। मोंकहाउस नामक विद्वान के शब्दों में, “अपक्षय में उन सभी साधनों के कार्य शामिल हैं जिनके द्वारा पृथ्वी तल के किसी भी भाग का अत्यधिक विनाशें, अपव्यय एवं हानि होती है। इस अपार विनाश से जो पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर निक्षेपित हो जाता है, उसके द्वारा अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है।
” इस प्रकार, ”मौसम के तत्त्वों द्वारा पृथ्वी पर विखण्डन की वह क्रिया, जिसमें चट्टानों का संगठन ढीला पड़ जाता है तथा वे टूटकर खण्ड-खण्ड हो जाती हैं, अपक्षय या ऋतु-अपक्षय कहलाती है।” हिण्डस ने भी कहा है कि “अपक्षय यान्त्रिक विघटन या रासायनिक अपघटन की वह क्रिया है जो चट्टानों के भौतिक स्वरूप को समाप्त करती रहती है।”