नाक सदा से ही प्रतिष्ठा का प्रश्न रही है। नाक की इसी प्रतिष्ठा को व्यंग्य रूप में इस पाठ में प्रस्तुत किया गया है। इस पाठ के माध्यम से देश के सरकारी अधिकारियों, कार्यालयों की कार्यप्रणाली, क्लर्को द्वारा अपनी जिम्मेदारी से बचने की प्रवृत्ति तथा काम को आनन-फानन में येनकेन प्रकारेण निपटाने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य किया गया है। पाठ में हम भारतीयों की गुलाम मानसिकता पर भी व्यंग्य किया गया है जिसके कारण आज़ादी मिले हुए इतना समय बीत जाने पर भी एक टूटी नाक के पीछे इतना परेशान हो जाते हैं कि यह परेशानी देखते ही बनती है। देश के शहीद नेताओं की नाक को अधिक बड़ा तथा शहीद बच्चों की नाकों को भी जॉर्ज पंचम की लाट की नाक के योग्य न समझकर एक ओर सम्मानित किया गया है, परंतु अंत में बुत पर जीवित नाक लगाकर देश की प्रतिष्ठा को ज़मीन पर ला पटकी है।