हिंदी का प्रथम नाटक गोपालचंद्र गिरधरदास द्वारा रचित नहुष माना जाता है।
इंद्रिय ग्राह्यता के आधार पर साहित्य के दो भेद माने जाते हैं-दृश्य और श्रव्य दृश्य काव्य को पुनः दो भेदों में विभक्त किया जाता है- रूपक तथा उपरूपक।
नाटक के अंग
भारतीय काव्यशास्त्र में वस्तु, नेता, रस को नाटक का आवश्यक अंग माना गया, परन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने कथोपकथन, देशकाल, उद्देश्य और शैली को भी प्रर्याप्त महत्त्व दिया। अभिनेयता तो नाटक का आवश्यक तत्त्व है ही।
नाटकों का प्रारम्भ
हिन्दी साहित्य में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु के समय से स्वीकार किया जाता है। भारतेन्दु ने अपने पिता गोपालचंद्र गिरिधरदास कृत नहुष (1857) को हिन्दी का प्रथम नाटक स्वीकार किया है। उन्होंने स्वयं सत्रह मौलिक तथा अनूदित नाटकों की रचना की।
द्विवेदी युग में साहित्य अधिक प्रगति न कर सका। इस काल में रचित नाटकों का महत्त्व मात्र एतिहासिक है ।
छायावाद युग में प्रसाद ने नाटक साहित्य को एक नयी दिशा प्रदान की। इस पर ल में पारसी रंग-मंच के माध्यम से भी अनेक नाटक प्रकाश में आये।
छायावादोत्तर काल में नाट्य साहित्य की रचना पर्याप्त मात्रा में हुई। इस काल में प्रमुख नाटककार हैं- लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेन्द्रनाथ अश्क (अंजो दीदी), विष्णु प्रभाकर (डॉक्टर), जगदीशचंद्र माथुर (कोनार्क), लक्ष्मीनारायण लाल (सुन्दर रस, मादा कैक्टस), मोहन राकेश (आषाढ़ का एक दिन), हरिक्रष्ण प्रेमी, उदयशंकर भट्ट, विनोद रस्तोगी (नया हाथ), नरेश मेहता, सुरेन्द्र वर्मा, ज्ञानदेव अग्निहोत्री (शुतुरमुर्ग) मुद्रा राक्षस आदि।