उत्परिवर्तन
ह्यूगो डी ब्रीज (Hugo de Vries, 1848 – 1935), हॉलैण्ड के एक प्रसिद्ध वनस्पतिशास्त्री ने सांध्य प्रिमरोज (evening primrose) अर्थात् ऑइनोथेरा लैमार्किआना (Oenothera lamarckigna) नामक पौधे की दो स्पष्ट किस्में देखीं, जिनमें तने की लम्बाई, पत्तियों की आकृति, पुष्पों की आकृति एवं रंग में स्पष्ट भिन्नताएँ थीं। इन्होंने यह भी देखा कि अन्य पीढ़ियों में कुछ अन्य प्रकार की वंशागत विभिन्नताएँ भी उत्पन्न हुईं। डी ब्रीज ने इस पौधे की शुद्ध नस्ल की इस प्रकार की सात जातियाँ प्राप्त कीं। उन्होंने इन्हें प्राथमिक जातियाँ (primary species) कहा। जातीय लक्षणों में होने वाले इन आकस्मिक (sudden) वंशागत परिवर्तनों को डी ब्रीज ने उत्परिवर्तन (mutation) कहा और सन् 1901 में उन्होंने इस सम्बन्ध में एक उत्परिवर्तन सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
उन्होंने बताया कि नयी जीव जातियों का विकास लक्षणों में छोटी-छोटी व अस्थिर विभिन्नताओं के प्राकृतिक चयन द्वारा न होकर एक ही बार में स्पष्ट एवं वंशागत आकस्मिक परिवर्तनों अर्थात् उत्परिवर्तनों के द्वारा होता है। उन्होंने यह भी बताया कि जाति का प्रथम सदस्य, जिसमें उत्परिवर्तन होता है, उत्परिवर्तक (mutant) है और यह शुद्ध नस्ल (pure breed) का होता है। उत्परिवर्तन की यह प्राकृतिक प्रवृत्ति (inherent tendency) लगभग सभी जीव-जातियों में पायी जाती है। उत्परिवर्तन अनिश्चित (indeterminate) होते हैं तथा लाभदायक अथवा हानिकारक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। ये किसी एक अंग विशेष अथवा एक से अधिक अंगों में साथ-साथ हो सकते हैं।
एक जाति के विभिन्न सदस्यों में अलग-अलग प्रकार के उत्परिवर्तन हो सकते हैं। इस प्रकार एक जनक अथवा पूर्वज जाति से अनेक मिलती-जुलती नयी जातियों की उत्पत्ति सम्भव है। ये उत्परिवर्तन जननद्रव्य (germplasm) में होते हैं तथा इनसे उत्पन्न भिन्नताएँ वंशागत होती हैं।
मॉर्गन (T.H. Morgan, 1909) ने डी ब्रीज के विचारों से असहमति व्यक्त करते हुए ड्रोसोफिला (Drosophila) नामक फल मक्खी (fruit fly) पर आधारित अपने अध्ययन के आधार पर उत्परिवर्तनों को आकस्मिक रूप से होने वाले परिवर्तन बताया जो जीन या गुणसूत्रों में होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि केवल जननिक उत्परिवर्तन ही वंशागत होते हैं। ये प्रभावी एवं अप्रभावी दोनों प्रकार के हो सकते हैं। प्रभावी उत्परिवर्तन शीघ्र ही अभिव्यक्त हो जाते हैं, जबकि अप्रभावी उत्परिवर्तन कई पीढ़ियों बाद भी प्रकट हो सकते हैं। घातक उत्परिवर्तन प्राय: अप्रभावी होते हैं। उत्परिवर्तन की दर विकिरण (radiation), रासायनिक उत्परिवर्तकों (chemical mutagens) तथा वातावरणीय दशाओं आदि कारकों पर निर्भर करती है। उत्परिवर्तन शरीर के लगभग सभी लक्षणों को प्रभावित कर सकते हैं।
उत्परिवर्तन एवं जैव विकास
उत्परिवर्तन जैव विकास-क्रिया को सीधे ही प्रभावित करते हैं। इसे निम्नलिखित तथ्यों द्वारा भली प्रकार समझा जा सकता है –
- उत्परिवर्तन बहुत ही अल्प समय में हो जाते हैं अत: जैव विकास की क्रिया में अत्यधिक महत्त्व रखते हैं।
- संयोजी कड़ियों की उपस्थिति को उत्परिवर्तन सिद्धान्त द्वारा सहज ही समझा जा सकता है।
- डॉबजैन्स्की (Dobzhansky) के अनुसार जीव को वातावरण के प्रति अनुकूल बनाने वाले उत्परिवर्तन प्राकृतिक चयन (natural selection) द्वारा शीघ्र जीनिक संरचना में संकलित हो जाते हैं। इस प्रकार उत्परिवर्तनों का जैव विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है।