भारत के पठारी क्षेत्रों में अनेक चरवाहा समुदाय रहते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख समुदायों का विवरण इस प्रकार है
धंनगर (धंगर) महाराष्ट्र का प्रमुख चरवाहा समुदाय है। ये लोग महाराष्ट्र के मध्य पठारी क्षेत्रों में रहते हैं। 20वीं सदी की शुरुआत में इनकी जनसंख्या 4,67,000 थी। इस समुदाय के अधिकांश लोग पशुचारण पर आश्रित हैं परंतु कुछ लोग कंबल और चादरें भी बनाते हैं। महाराष्ट्र का यह भाग कम वर्षा वाला क्षेत्र होने के कारण अर्द्धशुष्क प्रदेश है। यहाँ प्राकृतिक वनस्पति के रूप में काँदेदार झाड़ियाँ मिलती हैं जो पशुओं को चारा जुटाती हैं। अक्टूबर में यहाँ बाजरा की फसल काटने के उपरांत ये लोग पश्चिम में कोंकण क्षेत्र में पहुँच जाते थे। इस यात्रा में लगभग एक महीना लग जाता था। कोंकण एक उपजाऊ प्रदेश है और यहाँ वर्षा भी पर्याप्त होती है।
अतः यहाँ के किसान चावल की खेती करते थे। ये धंगर चरवाहों का स्वागत करते थे जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित थे जिसे समय धंगर किसान कोंकण पहुँचते थे उस समय तक खरीफ (चावल) की फसल कट चुकी होती थी। अब किसानों को अपने खेत रबी की फसल के लिए तैयार करने होते थे। उनके खेतों में धान के नँठ अभी मिट्टी में फँसे होते थे। धांगरों के पशु इन ढूंठों को खा जाते थे और मिट्टी साफ हो जाती थी। धंगरों के पशुओं का गोबर तथा मलमूत्र मिट्टी में मिल जाता था। अतः मिट्टी फिर से उर्वरता प्राप्त कर लेती थी। प्रसन्न होकर कोंकणी किसान धांगरों को चावल देते थे जो वे वापसी पर अपने साथ ले जाते थे।