बालुका-स्तूप या बालू के टीले
बालुका-स्तूप रेत के वे टीले होते हैं जो वायु द्वारा रेत के निक्षेप से निर्मित होते हैं। बालू के टीले उन स्थानों पर अधिक मिलते हैं जहाँ ढीले रेत के कण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों तथा वायु की दिशा भी प्रायः स्थिर हो। इन टीलों के आकार तथा स्वरूप में पर्याप्त अन्तर मिलता है। बालू के टीलों का निर्माण शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क भागों के अतिरिक्त सागरतटीय क्षेत्रों, झीलों के रेतीले तटों, रेतीले प्रदेशों से बहने वाली नदियों के बाढ़ प्रदेशों आदि स्थानों में होता है। सामान्यतया बालू के टीलों की ऊँचाई 30 मीटर से 60 मीटर तक पायी जाती है, परन्तु लम्बाई कई किमी तक होती है। कुछ टीलों की ऊँचाई 120 मीटर तथा लम्बाई 6 किमी तक देखी गयी है। इनका आकार गोल, नव-चन्द्राकार तथा अनुवृत्ताकार होता है। बालुका-स्तूपों के निर्माण के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं का होना अति आवश्यक है(i) बालू की पर्याप्त मात्रा, (ii) तीव्र वायु-प्रवाह, (iii) वायु-मार्ग में अवरोध की स्थिति, (iv) बालू संचित होने का स्थान एवं (v) वायु का एक निश्चित दिशा में निरन्तर बहते रहना।। बालू के टीलों का जन्म प्रायः घास के गुच्छों, झाड़ी या पत्थर आदि द्वारा वायु के वेग में बाधा पड़ने से होता है। भूतल की अनियमितता भी बालू के टीलों को जन्म देती है। यह बाधा वायु वेग को कम कर देती है जिससे वायु में उपस्थित रेत के कणों का निक्षेप होना आरम्भ हो जाता है। यह निक्षेप विकसित होते-होते बालू के टीले निर्मित हो जाते हैं।