बिस्मिल्ला खाँ हिंदुओं और मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक थे। वे स्वयं सच्चे मुसलमान थे। उनकी मुसलिम धर्म, उसवों और त्योहारों में गहरी आस्था थी। वे मुहर्रम सच्ची श्रद्धा से मनाते थे। वे पाँचों समय नमाज़ अदा करते थे। साथ ही वे जीवन-भर काशी, विश्वनाथ और बालाजी के मंदिर में शहनाई बजाते रहे। वे गंगा को मैया मानते रहे। वे काशी से बाहर रहते हुए भी बालाजी के मंदिर की ओर मुँह करके प्रणाम किया करते थे। उनकी इसी सच्ची भावना के कारण उन्हें हिंदू-मुसलिम एकता का प्रतीक कहा गया।